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प्रस्तावना - XIV जिनपालोपाध्याय उल्लेख करते हैं - १२७३ में बृहद्वार में लोकप्रसिद्ध गंगा दशहरा पर गंगा स्नान करने के लिए बहुत से राणाओं के साथ महाराजाधिराज श्री पृथ्वीचन्द्र भी आए हुए थे। उनके साथ में मनोदानंद नामक एक काश्मीरी पण्डित भी था। उसके साथ "जैन लोग षड्दर्शनों से बहिर्भूत हैं।" इस पर शास्त्रार्थ हुआ था। आचार्य जिनपतिसूरि की आज्ञा से जिनपालोपाध्याय ही राज्यसभा में गये थे और शास्त्रार्थ कर उस पर विजय प्राप्त की थी। इस शास्त्रार्थ का उल्लेख चन्द्रतिलकोपाध्याय ने भी अभयकुमार चरित्र (रचना सम्वत् १३१२) में किया है।
जिनपालोपाध्याय न्याय, दर्शन, साहित्य और जैनागमों के प्रौढ़ विद्वान् थे। शास्त्रार्थ करने में भी अत्यन्त पटु थे। आपकी प्रतिभा की प्रसंशा करते हुए आपके ही सतीर्थ्य (गुरुभ्राता) सुमतिगणि गणधरसार्द्धशतक की बृहद् वृत्ति (रचना सम्वत् १२९५) के मंगलाचरण में ही इनकी स्तुति की है। चन्द्रतिलकोपाध्याय
और प्रबोधचन्द्रगणि आदि ने इनको विद्या-गुरु के रूप में स्वीकार किया है। गच्छ में ज्ञान-वृद्ध, दीक्षा-वृद्ध, अवस्था-वृद्ध होने के कारण ये गच्छ के आर्दशभूत थे, इसलिए इन्हें महोपाध्याय पद से सम्बोधित करते थे। साहित्य - जिनपालोपाध्याय को महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित करने वाली इनकी एक मात्र रचना है- सनत्कुमारचक्रिचरितमहाकाव्यम्। स्वोपज्ञ टीका के साथ इन्होंने इसकी रचना वि०सं० १२५१ और १२६९ के मध्य में की थी। यह महाकाव्य महाकवि माघ रचित शिशुपालवध महाकाव्य की कोटिका है। महाकाव्य के मूल की वि०सं० १२७८ में कागज पर लिखित एक मात्र प्रति जैसलमेर, श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार में सुरक्षित है। स्वोपज्ञ टीका की प्रति आज तक अनुपलब्ध है। श्री सुमतिगणि ने गणधरसार्द्धशतक की बृहद् वृत्ति में यह उल्लेख अवश्य किया है कि कवि ने यह काव्य टीका सहित बनाया है। कवि ने स्वयं धर्मशिक्षाप्रकरण की प्रशस्ति पद्य में इसकी ओर संकेत अवश्य किया है। यह महाकाव्य मेरे द्वारा विस्तृत भूमिका के साथ सम्पादित होकर राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से विक्रम सम्वत् १९६९ में प्रकाशित हो चुका है। .. .
जिनपालोपाध्याय न केवल वादीभपञ्चानन ही अपितु प्रतिभासम्पन्न महाकवि एवं प्रौढ तथा सफल टीकाकार भी। वर्तमान में उपलब्ध आपके द्वारा रचित साहित्य का संवतानुक्रम से संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:
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