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प्रस्तावना - XIII जला देता है और सुरासुराधिपति एवं चक्रवर्ति आदि द्वारा नमस्करणीय श्रेष्ठतम जिनेन्द्र पद को प्राप्त कर मुक्ति वधु के साथ विलास करता है।
प्रारम्भ के प्रथम पद्य के समान ही कवि चातुर्यपूर्वक चक्रबन्ध काव्य के द्वारा श्लोक के तीन चरणों में "गणिजिनवल्लभवचनमदः" अंकित कर अपना नाम का उल्लेख कर देता है। टीकाकार जिनपालोपाध्याय - जिनपालोपाध्याय ग्रन्थ-धर्मशिक्षाकार जिनवल्लभसूरि के प्रपौत्र शिष्य हैं अर्थात् जिनवल्लभसूरि के पट्टधर क्रमशः दादा जिनदत्तसूरि, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि और जिनपतिसूरि के शिष्य हैं। जिनपालोपाध्याय स्वप्रणीत खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावलि में यत्र-तत्र स्वयं के सम्बन्ध में जो उल्लेख हैं वे निम्न हैं:- विक्रम सम्वत् १२२५ पुष्कर में जिनपतिसूरि ने इनको दीक्षा प्रदान कर इनका नाम जिनपाल रखा था। (पृष्ठ ४४) सम्वत् १२५१ में कुहियप ग्राम में जिनपतिसूरि ने ही इन्हें वाचनाचार्य पद प्रदान किया था। (पृष्ठ ४४) विक्रम सम्वत् १२६९ में जाबालीपुर जालौर के विधिचैत्य में जिनपतिसूरि ने ही जिनपाल को उपाध्याय पद प्रदान किया (पृष्ठ ४७)। विक्रम सम्वत् १२७७ में आषाढ़ सुदि १० के दिन गच्छनायक जिनपतिसूरि का स्वर्गवास हो जाने के बाद गच्छ की धुरी को सम्भालने वाले प्रमुख श्रमणों में आप भी थे (पृष्ठ ४८)। सम्वत् १२७१ माघ सुदि ६ जाबालीपुर के महावीर चैत्य में श्री जिनेश्वरसूरि के पद-स्थापन महोत्सव के समय जिनपाल भी उपस्थित थे (पृष्ठ ४८) । सं० १२८८ आश्विन शुक्ला १० को प्रह्लादनपुर में राजपुत्र श्री जगसिंह के सान्निध्य में साधु भुवनपाल ने स्तूप (संभवतः जिनपतिसूरि का समाधिस्थल) पर ध्वजारोहण प्रतिष्ठा का महा-महोत्सव जिनपालोपाध्याय के करकमलों से कराया था (पृष्ठ ४९)। सं० १३११ प्रह्लादनपुर में जिनपालोपाध्याय का स्वर्गवास हुआ (पृष्ठ ५०)।
जिनपाल की दीक्षाग्रहण के पूर्व कम से कम ८ या १० वर्ष की अवस्था भी आंकी जाय, तो इनका जन्म सं० १२१५ या १२१७ के आस-पास स्वीकार किया जा सकता है। इनका स्वर्गगमन १३११ में निश्चित है अतः आपकी पूर्णायु शतायु के निकट ही थी।
पुष्कर में दीक्षा होने से संभव है जिनपाल पुष्कर या निकटस्थ राजस्थान प्रदेश के ही निवासी हों। खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावलि (पृष्ठ ४४ से ४६) स्वयं
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