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________________ प्रस्तावना - XII दूसरे पद्य में इस संसार समुद्र में मनुष्य जीवन अत्यन्त दुर्लभ है। चोल्लकादि १० दृष्टान्तों पर उल्लेख करते हुए मानवत्व की दुर्लभता, श्रेष्ठ कुल, क्षेत्र और धर्म स्वरूप प्राप्ति को अति दुष्कर बतलाया है। तीसरे पद्य में प्रस्तुत ग्रंथगत प्रतिपाद्य १८ विषयों की सूची प्रदान की है, जो निम्न हैं- १. चैत्य भक्ति का उल्लेख होने से मंदिर में विराजमान जिनेश्वर देवों की मूर्ति/प्रतिमा की पूजा-अर्चना, स्तवना करनी चाहिए। २. कर्मों की निर्जरा के लिए शक्ति के अनुसार आडम्बर रहित होकर भावों की वृद्धि करते हुए बारह प्रकार का तप करना चाहिए। ३. सद्गुणों से अलंकृत गुणिजनों के सम्पर्क में रहना चाहिए। ४. अर्थ दोष को ध्यान में रखते हुए धन के प्रति विरक्ति अर्थात् आसक्ति या मूर्छा नहीं रखनी चाहिए। ५. भगवत् प्ररूपित नव तत्त्वों पर श्रद्धा रखनी चाहिए। ६. सद्गुरुओं के प्रति अटूट विश्वास रखना चाहिए। ७. संसार में भ्रमण का कारण भव समुद्र से भय रखना चाहिए। ८. आत्मनिधि- उत्तम गुणों का विकास, परोपकार, सत्कार, आगमकालिक चिन्तन, आत्म प्रशंसा का परिहार, लोकप्रियता, प्रेमालाप आदि नीतिगुणों का अनुसरण करना चाहिए।९. अशान्तिकारक कारणों को दूर कर जीवन में क्षमा धारण करनी चाहिए। १०. इन्द्रियों के सम्पर्क से ही कर्मों की बढ़ोत्तरी होती है अतः इन्द्रियों का दमन करना चाहिए। ११. आत्म-शान्ति के विकास के लिए अंतरंग शत्रु क्रोधादि का नियमन करना चाहिए। १२. संसार के समस्त पदार्थ सुख के द्योतक नहीं, सुखाभास के द्योतक है अतः इनकी चंचलता को ध्यान में रखकर सुखरति की प्राप्ति हो इसका ध्यान रखना चाहिए। १३. संसारवर्द्धक कामिनियों का त्याग करना चाहिए। १४. अट्ठारह दोष रहित आप्त पुरुषों की वाणी में भ्रान्ति रहित होकर विश्वास करना चाहिए। १५. सिद्धान्तों को जानने की जिज्ञासा और प्रयत्न करना चाहिए। १६. न्यायोपार्जित द्रव्य का सुपात्रादि में सद्उपयोग करते हुए दान देना चाहिए। १७. शास्त्र-विहित विनय गुण को जीवन में धारण करना चाहिए। १८. ज्ञान के प्रति श्रद्धा से श्रुतलेखन इत्यादि में अपना धन व्यय कर विद्वद् जनों को शास्त्रादि प्रदान करना चाहिए। उक्त १८ विषयों का २-२ श्लोकों में उनके दोषों को दिखाते हुए करणीय कर्तव्यों का विशिष्ट रूप से प्रतिपादन किया गया है। अंतिम ४०वें पद्य में उपसंहार करते हुए कवि कहता है कि जो भव्यजन उक्त प्रतिपादित शिक्षा को धारण कर जीवन में उतार लेता है, वह अनर्थकारी भवरूपी वृक्ष को जड़ मूल से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002705
Book TitleDharmshiksha Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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