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________________ अर्थ - जो अर्थ को शब्दारुढ़ और शब्द को अर्थारुढ़ कहता है वह समभिरुढ़ नय है जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर । विशेषार्थ - समभिरूढ़ नय के दो अर्थ है जैसा मूल में ग्रन्थकार ने भी बताया है। एक तो अनेक अर्थोको छोड़कर किसी एक अर्थ में मुख्यता से रूढ़ होने को समभिरूढ़ नय कहते हैं। जैसे गौ' शब्द के ग्यारह अर्थ होते है, किन्तु वह सबको छोड़कर गाय' के अर्थ में रूढ़ है। यह शब्द को अर्थारूढ़ मानने का उदाहरण है। दूसरा-शब्द - भेद से अर्थ का भेद मानने वाला समभिरूढ़नय है। जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर ये तीनों शब्द स्वर्ग के स्वामी इन्द्र के वाचक है और एक ही लिंग के है, किन्तु समभिरूढ़ नय के अनुसार ये तीनों शब्द इन्द्र के भिन्न-भिन्न धर्मो को कहते है । वह आनन्द करता है इसलिए उसे इन्द्र कहते हैं, शक्तिशाली होने से शक्र और नगरों को उजाड़नेवाला होने से पुरन्दर कहा जाता है । इस तरह जो नय शब्द भेद से अर्थभेद मानता है वह समभिरूढ़ नय है। एवंभूतनयका स्वरूप जं जं करेइ कम्मं देही मणवयणकायचिठ्ठाहिं । तं तं खु णामजुत्तो एवंभूओ हवे स णओ ।।43।। यद्यत्कुरुते कर्म देही मनोवचनकायचेष्टातः । तत्तत्खलु नामयुक्त एवंभूतो भवेत्स नयः ।।43।। अर्थ - जीव मन, वचन, और काय की चेष्टा से जो- जो क्रिया करता है उस-उस नाम से वह युक्त होता है । यह एवंभूत नय का स्वरूप जानना चाहिये। विशेषार्थ - जिस शब्द का अर्थ जिस क्रियारूप हो उस क्रिया रूप 34 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002704
Book TitleLaghu Nayachakrama
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherPannalal Jain Granthamala
Publication Year2002
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size3 MB
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