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अर्थ - जो नय एक अर्थ में भिन्न लिंग आदि वाले शब्दों की प्रवृत्ति को स्वीकार नहीं करता उसे शब्द नय कहते हैं। जैसे पुष्य आदि शब्दों में लिंग भेद होने से अर्थ भेद जानना चाहिए।
अथवा सिद्ध शब्द में जो कुछ अर्थ का व्यवहार किया जाता है वह शब्दनय का विषय है जैसे देव शब्द से देव अर्थ लिया जाता है।'
विशेषार्थ - लिंग, संख्या, साधन आदि के व्यभिचार दूर करने वाले ज्ञान और वचन को शब्दनय कहते हैं । भिन्न लिंग वाले शब्दों का एक ही वाच्य मानना लिंग व्यभिचार है, जैसे तारका और स्वाति का, अवगम और विद्याका, वीणा और वाद्यका एक ही वाच्यार्थ मानना । विभिन्न वचनों में प्रयुक्तहोनेवाले शब्दों-का एक ही वाच्य मानना वचनव्यभिचार है। जैसे आपः और जल का, तथा दाराः और स्त्री का । इसी तरह मध्यम पुरूष का कथन उत्तम पुरूष की क्रिया के द्वारा करना पुरूष व्यभिचार है । ' होनेवाला' काम हो गया' ऐसा कहना कालव्यभिचार है, क्योंकि हो गया तो भूतकाल को कहता है और होनेवाला आगामी काल को कहता है । इस तरह व्यभिचार शब्दनय की दृष्टि में उचित नहीं है। जैसा शब्द कहता है, वैसा ही अर्थ मानना इस नय का विषय है। अर्थात् यह नय शब्द में लिंगभेद, वचनभेद, कारकभेद, पुरूषभेद, और कालभेद होने से उसके अर्थ में भेद मानता है।
समभिरूढनयका स्वरूप सद्दारूढो अत्थो अत्थारूढो तहेव पुण सद्दो । भणइ इह समभिरूढो जह इंद पुरंदरो सक्के ||42||
शब्दारूढोऽर्थोऽर्थारूढस्तथैव पुनः शब्दः । भणति इह समभिरूढो यथा इन्द्रः पुरंदरः शक्रे।।42।।
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