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________________ पर्याय सन्निहित नहीं है । केवल भात के लिये किये गये व्यापार में भात का प्रयोग किया गया है । यह सब नैगम नय का विषय है । यद्यपि तीर्थकर परमदेव आदि योगीन्द्र अतीतकाल में सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके निर्वाण को प्राप्त कर चुके है फिर भी वर्तमान में वे सम्पूर्ण कर्मो का क्षय करने वाले हैं, इस प्रकार निर्वाण की पूजा, अभिषेक और अर्चना विशेष क्रियाओं को वर्तमान में करते और कराते है । अथवा व्रतगुरू, दीक्षा गुरू, शिक्षा - गुरू, जन्म-गुरू आदि सत्पुरूष समाधि विधि से दूसरी गति को प्राप्त हो चुके हैं, फिर भी वे आज समाधि से युक्त हुए हैं, इस प्रकार से उस दिन के गुणानुराग से दान, पूजा, अभिषेक और अर्चा को वर्तमान काल में करते हैं । इस प्रकार अतीत विषयों को वर्तमान के समान कथन करना भूत नैगम नय है । वर्तमान नैगमनय का स्वरूप पारद्वा जा किरिया पयणविहाणादि कहइ जो सिद्धा । लोए य पुच्छमाणे तं भण्णइ वट्टमाणणयं ॥34|| प्रारब्धा या क्रिया पचनविधानादिः कथयति यः सिद्धाम्। लोके च पृच्छ्यमाने स भण्यते वर्तमाननयः ।। 34।। अर्थ - जो प्रारम्भ की गई पकाने आदि की क्रिया को लोगों के पूछने पर सिद्ध या निष्पन्न कहना है वह वर्तमान नैगमनय है । विशेषार्थ - प्रारम्भ किये गये किसी कार्य को, उस कार्य के पूर्ण नहीं होने पर भी पूर्ण हुआ कह देना वर्तमान नैगम नय है । जैसे- कोई पुरूष भात बनाने की सामग्री इकट्ठी कर रहा था किन्तु उसका यह कहना कि 'भात बना रहा हूँ' वर्तमान नैगम नय का विषय जानना चाहिये । Jain Education International 28 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002704
Book TitleLaghu Nayachakrama
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherPannalal Jain Granthamala
Publication Year2002
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size3 MB
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