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________________ भाविनैगमनयका स्वरूप णिप्पण्णमिव पयंपदि भाविपयत्थं णरो अणिप्पण्णं । अप्पत्थेजह पत्थंभण्णइसोभाविणइगमोत्तिणओ।।35|| निष्पन्नमिव प्रजल्पति भाविपदार्थं नरोऽनिष्पन्नम्। अप्रस्थे यथा प्रस्थः भण्यते स भाविनैगम इति नयः ।।35।। अर्थ - जो अनिष्पन्न भावि पदार्थ को निष्पन्न की तरह कहता है उसे भावि नैगमनय कहते है जैसे अप्रस्थ को प्रस्थ कहना। विशेषार्थ - जो अभी बना नहीं है उसे अनिष्पन्न कहते हैं। और बन जाने पर निष्पन्न कहते है । भावि में भूत की तरह व्यवहार करना अर्थात् अनिष्पन्न में निष्पन्न व्यवहार करना भाविनैगमनय है । जैसे कोई पुरूष कुठार लेकर वन की ओर जाता है, उससे कोई पूछता है आप किस लिए जाते है ? वह उत्तर देता है- प्रस्थ लेने जाता है। इस प्रकार का वचन व्यवहार भावि नैगमनय का विषय है। संग्रह नय के भेदों का स्वरूप अवरे परमविरोहे सव्वं अत्थित्ति सुद्धसंगहणो । होई तमेव असुद्धो इगजाइविसेसगहणेण ||36|| अपरे परमविरोधे सर्वं अस्ति इति शुद्धसंग्रहणं। भवति स एवाशुद्धः एकजातिविशेषग्रहणेन ।।36।। अर्थ – संग्रह नय के दो भेद है - शुद्ध संग्रहनय और अशुद्ध संग्रह नय। शुद्ध संग्रहनय में परस्पर में विरोध न करके सत् रुप से सबका ग्रहण किया जाता है और जो नय सत् रुप से ग्रहण पदार्थ की किसी एक जाति विशेष को | 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002704
Book TitleLaghu Nayachakrama
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherPannalal Jain Granthamala
Publication Year2002
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size3 MB
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