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________________ 10. झारणग्गिभूइक यकम्मबंधु भव्वयणकमलकंदोट्टबंधु । -जंबूसामिचरिउ 1.1.8 अर्थ --जिन्होंने अपने ध्यानरूपी अग्नि से कर्मबन्ध को भस्मसात कर दिया है और जो भव्य जनोंरूपी कमल-समूह के लिए सूर्य के समान है। (ख) निम्नलिखित काव्यांशो में प्रयुक्त अलंकारों के नाम तथा लक्षण बताते हुए व्याख्या कीजिए - 1. जय सयलगिवग्गमरणसंकर सिद्धि पुरंघिय संकर संकर । -वड्ढमाणचरिउ 10.3.4 अर्थ-समस्त प्राणीवर्ग के मन को शान्ति प्रदान करनेवाले हे देव ! आपकी जय हो। सिद्धिरूपी पुरन्ध्री को सुखी करनेवाले हे शंकर आपकी जय हो। 2. णठ्ठ कुरंगु व वारणबारहो, ण? जिणिदु व भव संसारहो । -पउमचरिउ 29.11.2 अर्थ-- लक्ष्मण को देखकर कपिल ब्राह्मण की वही दशा हुई जो शेर को देखकर मृग की होती है या जिनेन्द्र को देखकर संसारी की। 3. अज्जु प्रयाले वणासइरिद्धी अहिणवदलफलकुसुमसमिद्धी । अज्जु सुयंधु एहु सीयलु धणु, वाउ वाइ जं चूरियकाणणु ॥ -जंबूसामिचरिउ 1.13.3-4 अर्थ-पाज अकाल अर्थात बिना ऋतु के ही समस्त वनस्पति हरी-भरी हो उठी है और वह अभिनव पत्रों, पुष्पों व फलों से समृद्ध हो गयी है। आज ऐसा सुगन्धित शीतल व सघन वायु बह रहा है जिसने सारे कानन को पूर दिया है । भगवान महावीर का समोशरण विपुलाचल पर्वत पर पाया और वनमाली ने पाकर राजा श्रेणिक को समाचार दिया । ___ 222 ] [ अपभ्रंश अभ्यास सौरम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002697
Book TitleApbhramsa Abhyasa Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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