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अर्थ – और भी-कार्तिक नहीं होने पर भी आकाश निरतिशयरूप से
अभ्रमुक्त हो गया, तथा वर्षाकाल नहीं होने पर भी असार (क्षुद्र)
रज मानो धरातल में पूर्ण उपराम को प्राप्त हो गया । 6. कि लक्खणु जु पाइय कव्वहीं, कि लक्खणु वायरण हों सव्वहो । किं लक्खणु जं छन्दे णिदिट्ठउ, किं लक्खणु जं भरहे गविट्ठउ ।
-पउमचरिउ 44.3.2-3 अर्थ-(लक्ष्मण के आगमन की सूचना पाकर सुग्रीव का प्रतिहारी से
प्रश्न) क्या वह लक्षण जो प्राकृत काव्य में होता है ? क्या वह लक्षण जो व्याकरण में होता है ? क्या वह लक्षण जो छन्दशास्त्र में निर्दिष्ट है ? क्या वह लक्षण जो भरत की गोष्ठी में काम पाता है ?
7. कवि चाहइ सारुणकोमलाह, अंतरु रत्तुप्पल करयलाह। तहिँ एतहे तेतहे भमरु जाइ, कत्थई छप्पउ वि दुचित्तु भाइ ।
-सुदंसणचरिउ 7.14.4-5 अर्थ-कोई अरुण और कोमल रक्तोत्पलों और अपने करतलों में भेद
जानना चाहती थी। वह भ्रमर कभी इस ओर, कभी उस ओर जा रहा था। इस प्रकार कहीं षट्पद भी दुविधा में पड़ा प्रतीत
होता था। 8. रिसि रुक्ख व अविचल होवि थिय किसलए परिवेढावेढि किय । रिसि रुक्ख व तवणताव तविय, रिसि रुक्ख व पालवाल रहिय ।
- पउमचरिउ 33 3.4-6 अर्थ- मुनि वृक्ष की तरह अविचल होकर स्थित हो गए, किसलयों ने उन्हें
ढक लिया। मुनि वृक्ष के समान तपन के ताप से सन्तप्त थे, मुनि वृक्ष की तरह पालबाल परिग्रह/क्यारी से रहित थे।
9. कुमप्रसंड दुज्जणसमदरिसिन मित्तविणासणेण जे वियसिय ।
__ --सुदंसणचरिउ 8 17.5 अर्थ-कुमुदों के समूह दुर्जनों के समान दिखाई दिये। चूंकि वे मित्र
(सूर्य या सुहृद) का विनाश होने पर भी विकसित हुए ।
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ ]
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