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(3) भवयत्तु जेठ्ठ तुहुँ पवरभुप्रो लहुवारउ तहिं भवएउ हो । तवचरणु करिवि पाउसि खइए उप्पण मरेवि सग्गे तइए ।
-जंबूसामिचरिउ 3.5.7-8 अर्थ-तू जेठा भाई भवदत्त था और तेरा छोटा भाई उत्तम भुजाओंवाला
भवदेव था । तपश्चरण करके आयुष्य क्षय होने पर मरकर तीसरे स्वर्ग में उत्पन्न हुए।
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(4) तं सुणिवि तहों वयणु मुणि भणइ हयमयणु । तहों कहइ वरधम्मु जं करइ सुहजम्मु ।
-करकण्डचरिउ 9.20.1-2 अर्थ- करकण्ड का यह वचन सुनकर कामविजयी मुनि बोले और उन्हें
ऐसा उत्तम धर्म समझाने लगे जिससे जन्म सफल हो ।
(5) जय थियपरिमियणहकुडिलचिहुर जय पयरणयजणवयणिहयविहुर । जय समय समयमयतिमिरमिहिर जय सुरगिरिथिर मयरहरगहिर ।
-णायकुमारचरिउ 1.11 3-4 अर्थ-जिनके नख और कुटिल केश स्थित और परिमित हैं ऐसे हे
भगवान आपकी जय हो । जय हो आपकी जो चरणों में नमस्कार करनेवाले जन-समूह की विपत्तियों का अपहरण करते हैं ।
(6) सा वि जोइया णिवेण, णाणसायरं गएरण । तम्मि दिठ्ठ हेमकंतु अंगुलीउ णामवंतु ।
- करकण्डचरिउ 1.7.5-6 अर्थ- तब ज्ञान के सागर तक पहुंचे हुए उस राजा ने उस पिटारी को
जोहा (ध्यान से देखा) उसमें देखा कि स्वर्णमयी अंगुली की मोहर लगी है जिस पर नाम भी लिखा है।
(7) अइचडुलु
गडयडइ
घणवडलु । णं पडइ ।
~ सुदंसणचरिउ 11.22 5-6
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[ अपभ्रंश अभ्यास सौरम
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