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________________ (4) माणंदरूउ मणजोयहाँ जइ तो रमणिजोउ पवरु । विणु मोक्खें सोक्खघव,क्कउ पच्चक्खु जि पावेइ णरु । -जंबूसामिचरिउ 9.2.12-13 अर्थ-यदि मनोयोग (अर्थात् चित्तवृत्तियों का निरोध व ध्यानसमाधि) का स्वरूप प्रानंदमय है तो उससे श्रेष्ठ तो रमण योग हैं जिससे पुरुष मोक्ष के बिना ही प्रत्यक्ष सुख की अनुभूति पा लेता है । (5) ता कुलकारिणा णायवियारिणा । सुहहलसाहिणा भणियं णाहिणा । -महापुराण 4.8.1-2 अर्थ-तब न्याय का विचार करनेवाले शुभफल के वृक्ष कुलकर स्वामी (नाभिराज) ने कहा । (6) कज्जलसामलो उडुदसणुज्जलो । पत्तउ भीयरो तमरयणीयरो । -महापुराण 4.16.1-2 अर्थ-तब काजल की तरह श्याम, नक्षत्ररूपी दांतों से उज्ज्वल भयंकर तमरूपी निशाचर प्राप्त हुआ। (7) गुणाणं णिवासो दुहाणं विणासो । विरायं हणतो सरायं जणंतो । --करकण्ड चरिउ 4 16 3-4 अर्थ-वह गुणों का निवास और दुःखों का विनाश था एवं विराग का हन्ता और सराग का जनक । (8) मंति चित्तस्स प्रच्चंतु सो भाविप्रो, सूरतावेण वाएण णे पाविप्रो । भूमिगेहम्मि जा बद्धो अच्छए, सग्गिणीछंदकीरो वि तं पेच्छए । -करकण्डचरिउ 8.2.7-8 अर्थ-मंत्री के चित्त को वह अत्यन्त माया । उसके तेज को सूर्यताप तथा वेग को वायु भी नहीं पाते थे। जब वह भूमिगृह (घुड़साल)में बांधा हुआ रहता था तब एक सुपा उसे स्वच्छन्द भाव से देखा करता था। 210 ] । अपभ्रंश अभ्यास सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002697
Book TitleApbhramsa Abhyasa Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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