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________________ S श्रर्थ तव जो श्रमितवेग देव हुआ था उसने स्वर्ग में स्थित होते हुए हृदय में चिन्ता की । (10) सयलु वि जणु उम्माहिज्जन्तउ खणु वि ण थक्कइ णामु लयन्तउ । उब्बेलिज्जइ गिज्जइ लक्खणु मुरव - वज्जे वाइज्जइ लक्खणु 1 - पउमचरिउ 24.1.1-2 अर्थ - समस्त जन उत्पीड़ित होता हुआ, नाम लेता हुआ एक क्षण भी नहीं थकता | लक्खण (लक्ष्मण) को उछाला जाता, गाया जाता, मृदंग वाद्य में बजाया जाता । (ग) निम्नलिखित पद्यों के मात्राएं लगाकर इनमें प्रयुक्त छंदों के नाम एवं लक्षण बताइए (1) रिउमारणिया णिद्दारणिया । महिदारणिया णहचारणिया । अर्थ - रिपुमारणिका, निर्दारणिका, महिदारणिका, णभचारणिका । (2) तं जो घोट्टइ सो गरु लोट्टइ । गायइ णच्चइ सुयणई दिइ । - णायकुमारचरिउ 6.6.14-15 - सुदंसणचरिउ 6.2.5-6 अर्थ - इसे जो पीता है, वह मनुष्य (उन्मत्त होकर) लोटता है, गाता है, नाचता है, सज्जनों की निन्दा करता है । ( 3 ) जसु रूउ नियंतउ सहसणेत्तु हुउ विभियमणु णउ तित्ति पत्तु । जसु चरणं गुट्ठे सेलराइ टलटलियउ चिरजम्माहिसेइ । अपभ्रंश अभ्यास सौरभ ] अर्थ -- जिनके रूप को देखते हुए इन्द्र विस्मित मन हो गया और तृप्ति को प्राप्त न हुआ । जिनके जन्माभिषेक के समय चरणांगुष्ठ से शैलराज सुमेरु भी चलायमान हो गया । Jain Education International - सुदंसणचरिउ 1.1.5-6 For Private & Personal Use Only [ 209 www.jainelibrary.org
SR No.002697
Book TitleApbhramsa Abhyasa Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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