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________________ 208 (4) कहि जि दिट्ठ छारया, लवन्त मत्त मोरया । कहि जि सीह - गण्डया, धुणन्त पुच्छ दण्डया || (5) उम्मोहणिया सखोहणिया । अक्खोहणिया उत्तारणिया । अर्थ - कहीं पर भालू दिखायी दे रहा थे और कहीं पर बोलते हुए मस्त मोर । कहीं पर अपने पूंछ- रूपी दण्डों को धुनते हुए सिंह और गंडे थे । ( 6 ) नंदणो मुणेवि माय कारणेण केण प्राय । आनमसि पयाइँ पुच्छइ त्ति अम्मि काइँ । अर्थ - उम्मोहणिका, संक्षोमणिका, ग्रक्षोभणिका, उत्तरणिका । 1 --- (7) कुंटिउ मंटिड मोट्टिउ छोट्टिउ । बहिरिउ धि दुग्गंधिउ ॥ - ज. सा च. 9.17.5-6 अर्थ किसी कारण से मां को आयी जानकर पुत्र ने मां के पैरों को नमस्कार करके पूछा - मां क्या बात है ? ( 8 ) अच्छइ जाव सुहेणं मुंजइ भोय चिरेणं । ताव सधम्मु सुसीलो मत्तयकुंजरलीलो || - पउमचरिउ 32.3.5-6 - -गायकुमारचरिउ 6 6.11-12 - सु च 6 159-10 अर्थ वे ठूंठी, लंगडी, मोटी, छोटी बहरी, ग्रंधी प्रतिदुर्गन्धी होती हैं । ( 9 ) ता अमियवेएण अमरेण हूएण 1 थियएण सग्गमि चितियउ हिययम्मि || - करकण्डचरिउ 8.3.3-4 अर्थ- सुख से रहता हुआ दीर्घकाल तक भोग भोगता रहा । तब एक, धर्मवान, सुशील, मत्व कुंजर के समान लीला करता हुआ 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only CWAC - करकण्डचरिउ 5.11.1-2 [ अपभ्रंश अभ्यास सौरभ www.jainelibrary.org
SR No.002697
Book TitleApbhramsa Abhyasa Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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