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________________ (10) दिण्णानन्द-भेरि, पडिवक्ख खेरि खरवज्जिय । णं मयरहर-वेल, कल्लोलवोलं, गलगज्जिय ।। पउमचरिउ 40 16.3 अर्थ-शत्रु को क्षोभ उत्पन्न करने वाली प्रानन्दभेरी बजा दी गयी मानो लहरों के समूहवाली समुद्र की बेला ही गरज उठी हो । (ख) निम्नलिखित पद्यों के मात्रा लगाकर इनमें प्रयुक्त छंदों के लक्षण एवं नाम बताइए (1) उवयागउ भावसरूवें मुंजइ कम्मासऍण विणु । संसाराभावहो कारणु भाउ जि छड्डिय परदविणु ।।। -जं सा च. 9.1.18-19 अर्थ-- ज्ञानी इस परिस्थिति को उदयागत भावों (कर्मों) के अनुसार (नवीन) कर्मास्रव के बिना, परद्रव्य (में ग्रासक्ति) को छोड़कर भोगता है, और यही भाव (विवेक) संसाराभाव अर्थात् मोक्ष का कारण है। (2) ता तहिं मंडवे थक्कयं दि8 सेट्ठिचउक्कयं । तोरणदारपराइया तेहिं मि ते वि विहाइया ।। -जं. सा. च. 8.9.1-2 अर्थ - तब (इन दोनों पुरुषों ने वहां जाकर) मंडप में बैठे हुए चारों श्रेष्ठियों को देखा और तोरणद्वार पार करते ही वे दोनों भी उन श्रेष्ठियों के द्वारा देखे गए। (3) पई विणु को हय गयहुँ चडेसइ, पद्दविणु को झिन्दुऍण रमेसइ । पई विणु को पर-वलु भजेसह, पईंविण को मई साहारेसइ ।। -पउमचरिउ 23.4.8, 10 अर्थ - तुम्हारे बिना अश्व और गज पर कौन चढ़ेगा ? तुम्हारे बिना कौन गेंद से खेलेगा ? तुम्हारे बिना कौन शत्रु-सेना का नाश करेगा ? तुम्हारे बिना कौम मुझे सहारा देगा ? अपभ्रंशं अभ्यास सौरभ । ! 207 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002697
Book TitleApbhramsa Abhyasa Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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