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तं वयण सुणेविण धरणिणाहु सरलबाहु मंतिहे संतुटउ । तिहिँ फल हिँ मज्झे मइवरासु एक्कहो फलासु रिणु मई रिण रहरियउ । ईसु अवराह दोणि अज्ज वि खम । धरणिईसु खणि पसण्ण उ हुयउ । रायणेहु परियारिणवि मंतिई दिव्वदेह णिवणंदणु अप्पिउ । अइ गरेसर परममित्तु होहि । देव मइँ तुहारउ चित्तु कलिउ । वरिणवयण सुणेविण तेण णरवरेण अइप उरु पसाउ पइण्णु । जो जणु गुरुग्राण संगु वहेइ सो हियइच्छिय संपइ लहेइ । पुत्तय एह गुणसारणि उच्चकहाणी तुझु कहिय । हियई बुझ ।
घत्ता- खेय रई हिय बुद्धिएं करकंडु सयलउ कलउ जणाविउ (जाणाविउ)।
इय रिणत्तिएँ जो णरु ववहरइ सो णिच्छिउ भूवल उ मुंज इ ।
नोट-यहाँ 'अपभ्रंश काव्य सौरभ' के पाठ 12 का अन्वयं करके बताया गया है। इसी
पद्धति से 'अपभ्रंश काव्य सौरभ' के पाठ 1, 5, 9, 10, 13, 14, 17 का अन्वय करके जांचने के लिए अकादमी कार्यालय में भिजनायें ।
अपभ्रंश अभ्यास सौरम ]
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