________________
कोक्काविएप्पिणु
वहेवं
चंडालसु
अप्पेइ
जयहूं
एहो
रुवतु
सकम्मु
निदंतु
चंडालें
सह
गच्छंतु
श्रत्थि
तइयहुं
एक्कु
कारुणिउ
बुद्धिरिगहाणु
वहाहे
नेइज्जमाणु
तं
दट्ठूणं
कारणु
गाइ
तासु
रक्खरणसु
178 ]
Jain Education International
( कोक्क + प्रावि ) प्रे. संकृ
( वह ) हेक
( चंडाल ) 4 / 1
( अप्प ) व 3 / 1 सक
अव्यय
( एत) 1 / 1 स
( रुव )
वकृ 1 / 1
[ ( स ) - ( कम्म) 2 / 1 ]
(निंद) वकृ 1 / 1
( चंडाल ) 3 / 1
अव्यय
(गच्छ) वकृ 1 / 1
( स ) व 3 / 1 ग्रक
श्रव्यय
( एक्क) 1 / 1 सवि
( कारुणिअ) 1 / 1 वि
( बुद्धिणिहारण) 1 / 1 वि
( वह) 4 / 1
(णी ) कर्म वकृ 1 / 1
(त) 2 / 1 स
संकु अनि
(कारण) 2 / 1
( णा ) संकृ
(त) 6 / 1 स
( रक्खण) 4 / 1
= बुलवाकर
= वध के लिए
For Private & Personal Use Only
= सौंपता है ( सौंपा )
चांडाल को (के लिए)
जब
=यह
= रोता हुआ
= स्वकर्म को (की)
= निंदा करता हुआ
चांडाल के
==साथ
= जा रहा
= है (था)
तब
= एक
=
= दयावान
= बुद्धिमान ने
= वध के लिए
= ले जाए जाते हुए
= उसको
=
= देखकर
= कारण को
=जानकर
= उसकी
= रक्षा के लिए
[..अपभ्रंश अभ्यास सौरभ
www.jainelibrary.org