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________________ माया-परवंचनचातुर्य मिथ्यामार्ग रतमूढत्वस्नानादिकरण पशुतरूपूजनबहुपापारंभप्रवर्तनलो भाकुलितचित्तनिः शीलत्वकूटकर्मभूमिभेदसमरोषानर्थोद्भावनकृत्रिम हेमादिकरण जातिकुलशीलदूषणसद्गुणालो पासदगुणख्यापनकुमार्ग गमनस्वेच्छाचरणकापोतलेश्यार्त्तध्यानादयस्तिर्यगायुराश्रव कारणा भवति । स्वल्पारंभपरिग्रहत्वप्रकृतिभदतार्ज वाचारधूलिराजिसदृशरोषनिः कपटव्यवहारकारुण्याशयप्रदोष- कुकर्म - निर्वत्ति मधुरवचनौदासीन्यानसूयाल्पसं क्लेशदेवगुर्वादिपूजाकपोतपीतलेश्याशुभध्यानदयो मनुष्यायुराश्रव हेतुभूता ज्ञातव्यः । - मायाचार, दूसरों को ठगने में चतुर, मिथ्यामार्ग में प्रवृत्ति, मूढ़ता, गंगा स्नान, गाय पशु एवं पीपल आदि वृक्ष की पूजन, बहुत पाप आरंभ में प्रवृत्ति, लोभ से आकुलित चित्त, निःशीलता, कूटकर्म, पृथ्वी रेखा के समान क्रोधादि, अनर्थोद्भावन, कृत्रिम स्वर्णादि बनाना, जातिकुल एवं शील में दोष लगाना, दूसरों के सद्गुणों का लोप और असद् दोषों का प्रकाशन, कुमार्गगमन, स्वेच्छाचरण, कापोत लेश्या तथा आर्त ध्यान, तिर्यंचायु के आश्रव के कारण हैं । अल्प आरंभ, अल्प परिग्रह, प्रकृति भद्रता, आर्जव परिणाम, धूलि की रेखा के समान क्रोधादि, सरल व्यवहार, दयाभाव, प्रदोष निर्वृत्ति, दुष्ट कार्यों से निर्वृत्ति, मधुर वचन बोलना, औदासीन्यवृत्ति, ईर्ष्या रहित परिणाम, अल्प संक्लेश, देवता, गुरु आदि की पूजा करना, कापोत, पीत लेश्या के परिणाम, शुभ ध्यान आदि मनुष्य आयु के आश्रव का कारण जानना चाहिए । (92) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002694
Book TitleKarma Vipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherNirgrantha Granthamala
Publication Year2004
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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