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दर्शनौत्सक्य-बहुविध-पीडाभाव-प्रीतिकर-वाक्यादयो रतिकर्मणो हेतवो मंतव्याः। पररतिविनाश-पापशीलसंसर्ग निंद्यक्रियाप्रोत्साहोद्वेगादिररतिवेदनीयस्य हेतुः स्यात्। स्वान्यशोकोत्पादन-परवस्त्वाद्यादानशोकविह्वलाभिनंदादयः शोककर्मास्त्रव हेतवः स्युः। स्वभयत्रस्तपरिणाम-परभयकरण त्रासन-तर्जन-निर्दयत्वादिर्भयवेदनीयाश्रवस्य निमित्तो भवति। कुशलक्रियासहन-मललिप्तगात्रमुनिजुगुप्सापरपरिवादादयो जुगुप्सावेदनीयाश्रवस्य निमित्ता विज्ञेयाः। प्रकृष्टक्रोधमाया बहुवंचने अलीकभाषणप्रबृद्धरागकामभोगासंतोषमूढत्वस्त्रीवेशधारित्वादयः स्त्रीवेदाश्रवकारणाः स्युः। मंदक्रोधार्जवानुत्सि
देखने में उत्सुक्ता, दूसरों को अनेक प्रकार के दुख देने के भाव होना प्रीति कर वाक्यादि रति कर्म के आश्रव के कारण हैं। दूसरों की रति का विनाश, पाप शील व्यक्तियों की संगति, निंद्य क्रिया को प्रोत्साहन देना एवं उद्वेगादि अरति वेदनीय के आश्रव के कारण हैं। स्व शोक, दूसरों में शोक उत्पादन, दूसरों की वस्तु आदि का ग्रहण, शोक से विह्वल पुरुषों का अभिनंदन आदि, शोक कर्म के आश्रव के कारण हैं। स्वयं भयभीत रहना, दूसरों को भयभीत करना, त्रासन, तर्जन, निर्दयता आदि भय वेदनीय के आश्रव के कारण हैं। कुशल क्रिया को करने वालों में ग्लानि, मलिनता से युक्त मुनिराज से ग्लानि, दूसरों की बदनामी आदि जुगुप्सा वेदनीय के आश्रव के कारण जानना चाहिए। अत्यधिक क्रोध-माया, बहु वंचन, मिथ्या भाषण, तीव्रराग, काम भोग में असंतोष, मूढ़ता, स्त्री का वेश घारण आदि स्त्री वेद के आश्रव के कारण हैं। मंद क्रोध, आर्जव, अभिमान
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