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________________ सातासातावेदनीयचतुरायः समस्तनामप्रकृतिः उच्चैनींचे गौत्रणामुत्कृष्टाद्यनुभागबंधः घातिनां प्रतिभागः । घातिविनाशे स्वकार्यकरणसामर्थ्याभावात् । एता अघातिप्रकृतयः पुण्यपापसंज्ञाः शेषाः पूर्वोक्ताः पुनः पापाख्या भवतीति । रूप इन 12 कषायों के सर्वघाति स्पर्धक ही हैं, देशघाती नहीं हैं, अतः इनके स्पर्धक शैल, अस्थि और दारू के अनंतबहुभाग रूप हैं तथा शैल के बिना 2 प्रकार एवं अस्थि के बिना एक प्रकार भी पाए जाते हैं । इसलिए तीनों प्रकार के भाव रूप हैं। पुरुष वेद के बिना आठ नो कषाय शैल, अस्थि, दारु और लता रूप चारों प्रकार के अनुभाग से सहित हैं। इनमें से शैल, अस्थि, दारू व लता तथा अस्थि दारु व लता रूप अथवा दारू व लतारूप से तीन प्रकार परिणत होती हैं। केवल लता रूप के कदाचित भी परिणत नहीं होती है | दर्शनमोहनीय कर्म के लता भाग से दारु भाग के एक भाग के अनंत भागों में से एक भाग पर्यंत देशघाति के सभी स्पर्धक सम्यक्त्व प्रकृति रूप हैं तथा दारु भाग के एक भाग बिना शेष बहुभाग के अनंतखण्ड करके उनमें से अधस्तन एक खण्ड प्रमाण भिन्न जाति के सर्वघाति स्पर्धक मिश्र प्रकृति रूप जानना तथा शेष दारू भाग के बहुभाग में एक भाग बिना बहुभाग से अस्थि भाग शैलभाग पर्यंत जो स्पर्धक हैं । वे सर्वघाति मिथ्यात्व रूप जानना । साता वेदनीय, असातावेदनीय, चार आयु, नामकर्म की सभी प्रकृतियाँ, उच्च-नीत्र गोत्र घातिया कर्मों का प्रतिभाग है क्योंकि घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने पर ये साता वेदनीय आदि अघातिया कर्म अपने कार्य करने से समर्थ्य नहीं होते हैं । सातावेदनीय आदि 101 अघातिया प्रकृतियां पुण्य पाप रूप होती हैं। शेष पूर्वोक्त 47 घातिया कर्मों की प्रकृतियाँ पाप रूप ही होती हैं। (80) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002694
Book TitleKarma Vipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherNirgrantha Granthamala
Publication Year2004
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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