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एवं प्रत्ययवशादुपात्तरसविशेषो द्विधा वर्तते । स्वमुखेन परमुखेन च सर्वासां मूलप्रकृतीनां स्वमुखेनानुभवः । उत्तर - प्रकृतीनां तुल्यजातीनां परमुखेनापि भवति । आयुर्दर्शन
द्वितीय या तृतीय नरक जाने वाले मिथ्यात्व के सम्मुख असंयत गुणस्थानवर्ती मनुष्य के जघन्य अनुभाग सहित बंधती है। परघात, उच्छ्वास, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, शुभरूप वर्ण चतुष्क, निर्माण, पंचेन्द्रिय, अगुरुलघु इन पंद्रह प्रशस्त प्रकृतियों का चारों गति के संक्लिष्ट जीवों के तथा स्त्रीवेद और नपुंसकवेद इन दो अप्रशस्त प्रकृतियों का चारों गति के विशुद्ध परिणामी जीव जघन्य अनुभाग बघ करते हैं। "स्थिर - अस्थिर, शुभ -अशुभ, यशः कीर्ति - अयशः कीर्ति, सातावेदनीय व असातावेदनीय इन आठ प्रकृतियों का परिवर्तमान' अथवा अपरिवर्तमान मध्यम परिणामी मिथ्यादृष्टि जीव के या सम्यग्दृष्टि जीव के तथा उच्च गोत्र, 6 संस्थान, 6 संहनन, प्रशस्त - अप्रशस्त विहायोगति, मनुष्यगति, मनुष्यगत्वानुपूर्वी, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, सुभग, दुर्भग, आदेय, अनादेय ये 23 प्रकृतियाँ परिवर्तमान मध्यम परिणामी मिथ्यादृष्टि जीव के जघन्य अनुभाग सहित बंधती हैं।
( जो परिणाम संक्लेश अथवा विशुद्धि से प्रति समय बढ़ते ही जावे या घटते ही जावें पुनः पूर्वावस्था को प्राप्त न हो उन्हें अपरिवर्तमान परिणाम कहते हैं तथा जो परिणाम एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त होकर पुनः पूर्व अवस्था को प्राप्त हो सकें वे परिवर्तमान परिणाम हैं ।)
इस प्रकार कारण वश से प्राप्त हुआ वह अनुभाग दो प्रकार से प्रवृत्त होता है- स्वमुख और परमुख से सब मूल प्रकृतियों का अनुभाग स्वमुख से प्रवृत्त होता है। आयु, दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय के सिवाय तुल्यजातीय उत्तरप्रकृतियों का अनुभाग परमुख
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