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से पर्याप्त, साकार जागृत सर्वविशुद्ध, तदनंतर समय में सम्यक्त्व को प्राप्त होने वाला और उत्कृष्ट अनुभाग बंध करने वाला अन्यतर सप्तम पृथ्वी का नारकी जीव है। जघन्य अनुभाग बन्ध के स्वामी
___ अशुभ वर्णादि चार, उपघात, ज्ञानावरण पांच, अन्तराय पांच, दर्शनावरण चार, निद्रा, प्रचला, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद तथा संज्वलन चार इन तीस प्रकृतियों की जहां-जहां बन्ध व्युच्छित्ति होती है, वहां-वहां क्षपक श्रेणी वाले के जघन्य अनुभाग बन्ध होता है। अनन्तानुबन्धी चार, स्त्यानगृद्धि आदि तीन निद्रायें और मिथ्यात्व, इन आठ प्रकृतियों का मिथ्यात्वगुणस्थान में, अप्रत्याख्यान की चार कषाय असंयत गुणस्थान में, प्रत्याख्यान की चार कषाय देश संयत गुणस्थान में इस प्रकार इन गुणस्थानों में ये 16 प्रकृतियां संयम गुण को धारण करने के सम्मुख हआ अर्थात तदन्तर समय में संयम को प्राप्त करेगा ऐसा विशुद्ध परिणामी जघन्य अनुभाग सहित बांधता है। आहारक शरीर व आहारक आंगोपांग इन दो शुभ प्रकृतियों को प्रमत्त गुणस्थान के सम्मुख हुआ संक्लेश परिणाम वाला अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती जीव जघन्य अनुभाग सहित बांधता है। अरति और शोक को तत्प्रायोग्य विशुद्ध प्रमत्त गुणस्थानवी जीव जघन्य अनुभाग सहित बांधता है। सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, देवद्विक, नरकद्विक, वैक्रियिकद्विक, देवायु व नरकायु का जघन्य अनुभाग सहित बन्ध मनुष्य व तिर्यंच करता है। तिर्यंच व मनुष्यायु का लब्ध्यपर्याप्तक जीव करता है। उद्योत और औदारिक द्विक का जघन्य अनुभाग बंध संक्लिष्ट परिणामी देव और नारकी के होता है। सप्तम नरक में सम्यक्त्व के अभिमुख विशुद्ध नारकी के तिर्यंच गति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र का जघन्य अनुभाग बंध होता हैं। स्थावर व एकेन्द्रिय का जघन्य अनुभाग बन्ध नरकगति बिना शेष तीनगति वाले माध्यम परिणामी जीव करते हैं। आतप प्रकृति का जघन्य अनुभाग बंध भवनत्रिक और सौधर्म युगल वाले संक्लेशपरिणामी देवों के होता है। तीर्थंकर प्रकृति
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