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अनुभागबंधः कर्मानुभागनिर्मुक्तं, वीतरागं जगद्गुरुं।।
नत्वा वक्ष्येऽनुभागाख्यं, बंधं तत्सहानये।। ज्ञानावरणादिकर्मणां यो रसो (योऽनुभावो) रागद्वेषादिपरिणामो वाध्यवसानजनितःशुभःसुखदः अशुभो दुखदः सोनुभागबंधः। यथा अजागोमहिष्यादिक्षीराणां तीव्रमंदादिभावेन रस -विशेषो बहुधा भवति तथा कर्मपुदलानां तीव्रमंदादिभावेन स्वगत सुखदुःखादिदानसामर्थ्यविशेषः। उत्कृष्टजघन्यादिभेदमिन्नो बहुधा कुत्रचिदात्मनि शुभपरिणामप्रकर्षात् शुभप्रकृतिनां प्रकृष्टोनुभवः अशुभप्रकृतीनां निकृष्टः अशुभपरिणामप्रकर्षे अशुभप्रकृतीनां -प्रकृष्टोनुभवः शुभप्रकृतिनां निःकृष्टोनुभवः।
अष्ट कर्मों के फल से मुक्त, राग रहित, तीनों लोगों के गुरु सर्वज्ञ देव को नमस्कार कर, मैं अपने कर्मरूपी फल से प्राप्त होने वाले रस को नाश करने के लिए कर्मों के फल का निरूपण करने वाले अनुभाग बंध का प्रकरण कहता हूँ।
ज्ञानावरणादि कर्मों का फल या विपाक जो रागद्वेषादि अध्यवसान से उत्पन्न होने वाला शुभ सुख देने वाला, अशुभ दुख देने वाला है, वह . अनुभाग बंध है। जिस प्रकार बकरी गाय और भैंस आदि के दूध का अलग अलग तीव्र मंदादि रूप से रस विशेष (माधुर्य, तीखा धीमादि रूप) होता है उसी प्रकार कर्म पुद्गलों का अलग अलग स्वगत सामर्थ्य विशेष अनुभाग है। कर्मों के उत्कृष्ट जघन्य आदि बहुत भेदों से कभी जीव के शुभ परिणामों के प्रकर्ष भाव के कारण शुभ प्रकृतियों का प्रकृष्ट अनुभाग बंध होता है और अशुभ प्रकृतियों का निकृष्ट अनुभाग बंध होता है तथा अशुभ परिणामों के प्रकर्ष भाव के कारण अशुभ प्रकृतियों का प्रकृष्ट अनुभाग बंध होता है और शुभ प्रकृतियों का निकृष्ट अनुभाग बंध होता है।
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