SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विशेषार्थ- सातावेदनीयादि शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध विशुद्ध परिणामों से होता है और असातावेदनीयादि अशुभ (पाप) प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध संक्लेश परिणामों से होता है तथा इनसे विपरीत परिणामों से जघन्य अनुभाग बन्ध होता है अर्थात् शुभ-प्रकृतियों का संक्लेश परिणामों से और अशुभ प्रकृतियों का विशुद्ध परिणामों से जघन्य अनुभाग बन्ध होता है। इस प्रकार सभी प्रकृतियों का अनुभाग बन्ध जानना। मन्दकषाय रूप तो विशुद्ध परिणाम तथा तीव्रकषाय रूप संक्लेश परिणाम होते हैं। शंका- शुभ प्रकृति का संक्लेश परिणामों से जघन्य अनुभाग बन्ध होता है और विशुद्ध परिणामों से पाप-प्रकृति का जघन्य अनुभाग बन्ध होता है। ऐसा सिद्धांत का कथन है। इसमें शंका यह है कि प्रथम तो संक्लेश-परिणामों से शुभ-प्रकृति का बन्ध ही नहीं होता, क्योंकि संक्लेश परिणामों को पाप परिणाम कहते हैं और पाप परिणामों से शुभ का बन्ध नहीं होता, पाप परिणामों से पाप ही का बंध होता है? इसको उदाहरण सहित स्पष्ट करें। समाधान- शुभ परिणामों से शुभ प्रकृतियों का ही आस्रव व बन्ध होता है और अशुभ परिणामों से पाप प्रकृतियों का ही आस्रव और बंध होता है, ऐसा एकान्त नियम नहीं है। क्योंकि 47 ध्रुवबन्धी प्रकृतियों में पुण्य और पाप दोनों प्रकार की प्रकृतियां हैं। जिनका शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के परिणामों में निरन्तर आस्रव व बन्ध होता रहता है। वे ध्रुवबन्धी 47 प्रकृतियां इस प्रकार हैं :पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, पांच अंतराय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात और निर्माण नामकर्म। इन 47 ध्रुवबन्धी प्रकृतियों में से तैजसशरीर, कार्मणशरीर, अगुरुलघु और निर्माण ये चार शुभ (पुण्य) प्रकृतियां हैं और शेष 43 अशुभ (पाप) प्रकृतियां हैं। इस प्रकार अशुभ परिणामों से उपर्युक्त चार शुभ प्रकृतियों का तो अवश्य ही बंध होता है। इनके अतिरिक्त (72) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002694
Book TitleKarma Vipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherNirgrantha Granthamala
Publication Year2004
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy