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________________ सर्वायं जघन्यस्थितिबंध सामान्यापेक्षया संज्ञिपंचेन्द्रियस्य एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियासंज्ञीपंचेन्द्रियाणां जघन्य स्थितिबंधो य एवोत्कृष्टः। उक्ता स एव पल्योपमासंख्यातभागहीनो दृष्टव्यः। सामान्य अपेक्षा से संज्ञी पंचेन्द्रिय का जो जघन्य स्थिति बंध है वह एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के जघन्य स्थिति बंध में उत्कृष्ट के समान है तथा यहां सभी जगह पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन की संयोजना करना चाहिए। विशेषार्थ- उत्कृष्ट एवं जघन्य स्थिति बंध के स्वामी सिद्धांत ग्रन्थानुसार निम्न हैं- शुभाशुभ कर्म का उत्कृष्ट स्थिति बंध यथा योग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम वाले चारों गति के जीवों के ही होता है। तिर्यंच, मनुष्य व देवायु बिना अन्य 117 प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों से होता है और जघन्य स्थिति बन्ध यथायोग्य विशुद्ध परिणामों से होता है। तिर्यंच आदि तीन आयु का उत्कृष्ट स्थिति बंध यथायोग्य विशुद्ध परिणामों से होता है तथा जघन्य स्थिति बन्ध यथायोग्य संक्लेश परिणामों से होता है। आहारक द्विक, तीर्थकर और देवायु बिना शेष 116 प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बंध मिथ्यादृष्टि जीव ही करता है तथा आहारकद्विक आदि चार प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बंध सम्यग्दृष्टि जीव ही करता है। देवायु की उत्कृष्ट स्थिति को अप्रमत्त गुणस्थान में जाने के सम्मुख हुआ प्रमत्त गुणस्थान वाला जीव बांधता है। आहारकद्विक की उत्कृष्ट स्थिति को प्रमत्त गुणस्थान के सन्मुख हुआ अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती संक्लेश परिणामी जीव बांधता है। तीर्थंकर प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति को दूसरे या तीसरे नरक में जाने के सम्मुख हुआ क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि असंयत मनुष्य ही बांधता है। देवायुबिना शेष तीन आयु, वैक्रियक शरीर, वैक्रियक शरीर आंगोपांग, नरकगति, नरक गत्यानुपूर्वी, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, (65) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002694
Book TitleKarma Vipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherNirgrantha Granthamala
Publication Year2004
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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