________________
विकलत्रय और सूक्ष्मादि तीन इन सभी का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध मनुष्य और तिर्यंच जीव ही करते हैं। औदारिक द्विक, तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, उद्योत व असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन की उत्कृष्ट स्थिति मिथ्यादृष्टि देव और नारकी जीव ही बांधते हैं। एकेन्द्रिय, आतप और स्थावर इन तीन प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध मिथ्यादृष्टि देव करते हैं। शेष 92 प्रकृतियों को उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम वाले तथा ईषत् मध्यम संक्लेश परिणाम वाले चारों गतियों के जीव बांधते हैं ।
पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पांच अंतराय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और साता वेदनीय का जघन्य स्थिति बंध क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती जीव के अंतिम समय में होता है। पुरुषवेद एवं संज्वलन कषाय चतुष्क का जघन्य स्थिति बंध क्षपक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती जीव के होता है। तीर्थंकर और आहारक द्विक का जघन्य स्थिति बंध अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती क्षपक जीव के होता है। देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, वैक्रियकशरीर, वैक्रियक आंगोपांग का जघन्य स्थिति बंध असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव के होता है । देवायु और नरकायु का जघन्य स्थिति बंध संज्ञी अथवा असंज्ञी जीव के होता है। मनुष्य और तिर्यंचायु का जघन्य स्थिति बंध कर्मभूमियां मनुष्य या तिर्यंच करते हैं। निद्रा-निद्रा, प्रचला - प्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला, असातावेदनीय, मिथ्यात्व अनंतानुबंधी चतुष्क अप्रत्याख्यानचतुष्क, प्रत्याख्यानचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, पंचेन्द्रिय जाति औदारिक- तैजस- कार्मणशरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीर आंगोपाग, छह संहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त - अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, साधारण शरीर स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, अयशः कीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र इन प्रकृतियों का जघन्य स्थिति बंध सर्वविशुद्ध, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव करता है ।
(66)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org