SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निद्रा प्रचला सातावेदनीयं चतुः संज्वलनकषायाः हास्यं रतिः भयं जुगुप्साः पुंवेदः देवायुः देवगतिः पंचेन्द्रियजातिः वैक्रियिकाहारकतै जसकार्मणशरीराणि वैक्रियिकांगोपांगः आहारकांगोपांगः निर्माणं समचतुरस्रसंस्थानं स्पर्शः रसः गंध T: वर्णः देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यं अगुरुलघुः उपघातः परघातः उच्छ्वासः प्रशस्तविहायोगतिः प्रत्येकशरीरः त्रसः सुभगः सुस्वरः शुभः वादरः पर्याप्तिः स्थिरः आदेयः यशः कीर्ति तीर्थंकरत्वं उच्चैर्गोत्रं पंचांतरायाः एता ऐकोनषष्टिप्रकृतिः अप्रमत्तगुणस्थाने अप्रमत्तसंयतो बध्नाति असातावेदनीयं अरतिः शोकः अस्थिरः अशुभः अयशः कीर्ति एता षट्प्रकृतयोऽस्मिन् गुणस्थानेऽबंधका भवति । देवायु संज्ञिकामेकां प्रकृतिं परिहृत्य शेषा अप्रमत्त बंध निद्रा, प्रचला, साता - वेदनीय, संज्वलनकषायचतुष्क, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पुंवेद, देवायु, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक- आहारक, तैजस-कार्मण शरीर, वैक्रियिक- आहारक आंगोपांग, निर्माण, समचतुरस्र संस्थान, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रत्येक शरीर, त्रस, सुभग, सुस्वर, शुभ, बादर, पर्याप्त, स्थिर, आदेय, यशः कीर्ति, तीर्थंकर, उच्चगोत्र तथा पांच अंतराय इन 59 प्रकृतियों का अप्रमत्त गुणस्थान में अप्रमत्तसंयत बंध करता है । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ,. अयशः कीर्ति इन 6 प्रकृतियों का इस गुणस्थान में अबंध होता है । अप्रमत्त गुणस्थान में बंध योग्य प्रकृतियों में से देवायु को (50) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002694
Book TitleKarma Vipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherNirgrantha Granthamala
Publication Year2004
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy