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________________ यथा सर्वेषां वस्तूनां मध्ये अमृतसमानं मधुरं सुखकारक अन्यं न किंचित् भवति। हलाहलनिभं प्राणहरमपरं किंचिन्नास्ति तथा सर्वेषां प्रकृतिनां मध्ये त्रिभुवनेश्वरर्यजननी सर्वदुखांतकारिणी कृत्स्नप्राणिहितंकरा तीर्थकरत्वप्रकृति -समाना परा श्रेष्टा प्रकृतिः कलात्रयेऽपि न स्यात्। सर्व दुःखाकरीभूता अनंतसंसारकारिणी निकोतसप्तमनरकपर्यंतदुखःदायिनी मिथ्यात्वप्रकृतिसमा अन्या अशुभा प्रकृति नास्ति। गंध-रस-स्पर्श, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, साधारणशरीर, दुर्भग, दुस्वर, अशुभ, सूक्ष्म, अपर्याप्त, अस्थिर, अनादेय, अयशःकीर्ति इस प्रकार वर्णादि की 16 कम करने से उदयापेक्षा 84 प्रकृतियाँ.तथा घातिया कर्म की 47 में से सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति कम कर देने से बंधापेक्षा 82 प्रकृतियाँ अप्रशस्त रूप कही हैं। भेद विवक्षा से वर्णादि की 16 मिलाने पर बंधापेक्षा 98 एवं उदयापेक्षा सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्त्व प्रकृति मिलने से 100 प्रकृतियाँ पापरूप (अप्रशस्त) कही हैं। __ जैसे सभी वस्तुओं में अमृत के समान मधुर सुखकारक अन्य कुछ नहीं होता तथा हलाहल विष के समान प्राणों के हरण करने वाला कुछ भी नहीं है, उसी प्रकार तीनों कालों में अर्थात् भूत, भविष्यत और वर्तमान काल में सभी कर्मप्रकृतियां में तीनों लोकों के ऐश्वर्य उत्पन्न करने वाली, सभी दुखों का अंत करने वाली, सभी प्राणियों का हित करने वाली तीर्थकर प्रकृति के समान दूसरी कोई श्रेष्ठ प्रकृति नहीं हैं तथा दुख को देने वाली, अनंत संसार को करने वाली निगोद और सप्तम नरक पर्यंत दुख को देने वाली मिथ्यात्व प्रकृति के समान कोई अशुभ प्रकृति नहीं है। (42) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002694
Book TitleKarma Vipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherNirgrantha Granthamala
Publication Year2004
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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