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इदानीं पुण्यप्रकृतीनां भेदं निरूपयामि। सातावेदनीयं देवायुः मनुष्यायुः तिर्यगायुः मनुष्यगतिः देवगतिः पंचेन्द्रियजाति पंचशरीराणि त्रीण्यंगोपांगानि निर्माणं समचतुरससंस्थानं वजर्षमनाराचसंहननं प्रशस्तस्पर्शः प्रशस्तरसः प्रशस्तगंधः प्रशस्त -वर्णः मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्य देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य अगुरुलघुः परघातः आतपः उद्योतः उच्छवासः प्रशस्तविहायोगतिः प्रत्येकशरीरः त्रसः सुभगः सुस्वरः शुमः वादरः पर्याप्तिः स्थिरः आदेयः यशःकीर्तिः तीर्थकरत्वं उच्चैः गोत्रं एताः पुण्यप्रकृतयो जीवानां सुखजन्यो द्विचत्वारिंशत् -प्रमाणाःभवंति।
अब पुण्य प्रकृतियों के भेदों का निरूपण करते हैं। साता वेदनीय, देवायु, मनुष्यायु, तिर्यंचायु, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, पांच शरीर, तीन अंगोपांग, निर्माण, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रवृषभनाराच संहनन, प्रशस्त स्पर्श, प्रशस्तरस, प्रशस्तगंध, प्रशस्त वर्ण, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रत्येक शरीर, त्रस, सुभग, सुस्वर, शुभ, बादर, पर्याप्त, स्थिर, आदेय, यशः कीर्ति, तीर्थंकर एवं उच्चगोत्र ये जीवों को सुख उत्पन्न करने वाली 42 पुण्य प्रकृतियां हैं। विशेषार्थ- भेद विवक्षा से तो 68 पुण्यप्रकृतियाँ होती हैं। और अभेद विवक्षा से 42 प्रकृतियाँ है सो इसका अभिप्राय यह है कि पाँच बन्धन और पाँच संघात पाँच शरीरों के अविनाभावी हैं। अतः उनको पृथक् नहीं गिनने से 10 प्रकृतियाँ ये एवं वर्णादि की 20 में से सामान्य से वर्ण चतुष्क कहने पर 16 प्रकृतियाँ वे कम हो गई। इस प्रकार इन 26 प्रकृतियों को कम कर देने पर अभेद विवक्षा से 42 ही प्रकृतियाँ रहती हैं एवं भेद विवक्षा से इन 26 का भी कथन होने से 68 प्रकृतियाँ हो जाती हैं।
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