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यद् वशात् दातुंकामोऽपि न प्रयच्छति स दानातंरायः । यदुदयात् लब्धकामोऽपि न लभते स लाभांतरायः । यद् विपाकात् भोक्षुमिच्छन्नपि न भुंक्ते स भोगांतरायः । यद् वशात् उपभोगक्तुमभिवांच्छन्नपि नोपभुंक्ते स उपभोगांतरायः । येन कर्मोदयेनोत्साहितुकामोऽपि नोत्सहते स वीर्याांतरायः । यथा राज्ञो भंडागारिको दानादीनां विघ्नं करोति तथांतरायः कर्मजीवस्य दानलाभभोगोपभोगवीर्याणां विघ्नं विदधाति । इमाः सर्वा अष्टचत्वारिंशदधिकशतप्रमाणाः कर्मणामुत्तरप्रकृतयः पृथक् पृथक् स्वभावा विज्ञेयाः ।
जिस कर्म के उदय से देने की इच्छा करता हुआ भी नहीं देता, वह दानांतरायकर्म है।
जिसके उदय से प्राप्त करने की इच्छा करना हुआ भी प्राप्त नहीं कर पाता है, वह लाभांतराय कर्म है ।
जिस कर्म के उदय से भोगने की इच्छा करता हुआ भी नहीं भोग सकता, वह भोगांतराय कर्म है ।
जिस कर्म के उदय से उपभोग की इच्छा करता हुआ भी उपभोग नहीं कर सकता वह उपभोगांतराय कर्म है।
जिस कर्म के उदय से उत्साहित होने की इच्छा रखता हुआ भी उत्साहित नहीं होता वह वीर्यांतराय कर्म है।
यथा राजा का भण्डारी दानादि में विघ्न डालता है, उसी प्रकार अंतराय कर्म जीव को दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य आदि में विघ्न डालता है । ये सब पृथक् पृथक् स्वभाव वाली कर्म की 148 उत्तर प्रकृतियां जानना चाहिए ।
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