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यत् वशादाहारादिषट्पर्याप्तिनिष्पत्ति जीवस्य जायते तत् पर्याप्ति -नाम। यत् वशात् पर्यापयितुमात्मा असमर्थो भवति तदप
प्तिनाम। यस्य शुभकर्मणो विपाकेन दुष्करोपवासादि -तपःकरणेऽपि अंगोपांगानां स्थिरत्वं भवति तत् स्थिरनाम। यद् वशात् उपवासादिकरणे स्वल्पशीतोष्णादि अंगोपांगानि कृशी भवन्ति तदस्थिरनाम। येन शुभकर्मोदयेनादेयत्वं प्रभोपेतं शरीरं भवति तदादेयनाम। यद् वशादनादेयं निःप्रभवशरीरं भवति तत् अनादेयनाम। यत् कर्मविपाकात् सद्भूतानां वासदभूतानां गुणानां लोकेख्यापनं जायते तद्यशःकीर्तिनाम।
जिस कर्म के उदय से आहार आदि षट् पर्याप्तियों की रचना होती है, वह पर्याप्ति नामकर्म है।
जिस कर्म के उदय से जीव पर्याप्तियों के पूर्ण करने के लिए समर्थ नहीं होता है, वह अपर्याप्त नामकर्म है।
जिस कर्म के उदय से दुष्कर उपवास आदि तप करने से भी अंग उपांग आदि स्थिर बने रहते हैं कृश नहीं होते, वह स्थिर नामकर्म है।
जिस कर्म के उदय से अल्प उपवास आदि करने पर अथवा अल्पशीत या उष्ण के संबंध से अंगोपांग कृश हो जाते हैं, वह अस्थिर नामकर्म है।
जिस कर्म के उदय से प्रभा युक्त शरीर होता है, वह आदेय नामकर्म है।
जिस कर्म के उदय से निष्प्रभ शरीर उत्पन्न होता है, वह अनादेय नामकर्म है।
जिस कर्म के उदय से विद्यमान या अविद्यमान गुणों का उद्भावन लोगों के द्वारा किया जाता है, वह यशः कीर्ति नामकर्म है।
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