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यत् कर्मवशात् अग्निकायादौ (इव) उष्णत्वं स्यात् तत् उष्णनाम। नैतेषामभावः सर्वत्र कर्कशमृद्वादि दर्शनात्। यस्य कर्मणा उदयेन श्रृंगवेरादिषु (इव) शरीरपुद्गलास्तिक्तस्वरूपेण परिणमंति तत् तिक्तनाम। यत् वशानिबादौ (इव) शरीरपुद्गलाः कटुकभावेन परिणमंति तत् कटुकनाम। यद् विपाकेन वभीतक फलादौ निभं कषायभावेन पुद्गला एकीभावं अति तत् कषायनाम। यस्य कर्मोदयेन शरीरपुद्गला आम्लस्वरूपेन चिंचा वृक्षादौ (निभ) तन्मयत्वं यांति तदाम्लनाम। येन कर्मणा काययोग्यपुद्गलाः इक्ष्वादिषु (इव) मधुररूपेण परिणमंति तन्मधुर -नाम। न तेषामभावो निंबादीनां प्रतिनियत रसोपलंभात्।
जिस कर्म के उदय से अग्निकाय आदि के समान उष्णता होती है, वह उष्ण नामकर्म है।
कर्कशादि का अभाव नहीं है क्योंकि सर्वत्र कर्कशमृदुत्व आदि के दर्शन होते हैं।
जिस कर्म के उदय से श्रृंगवेर आदि के समान शरीर के पुद्गल स्कंध तिक्त रूप परिणत होते हैं, वह तिक्त नामकर्म है।
जिस कर्म के उदय से निंब आदि के समान शरीर के पुद्गल स्कंध कटुक परिणत होते हैं, वह कटुक नामकर्म है।
जिस कर्म के फलस्वरूप आँवलो के फल के समान शरीर के स्कंध कषायले रूप होते हैं, वह कषाय नामकर्म है।
जिस कर्म के उदय से शरीर के स्कंध चिंचा वृक्ष के समान आम्ल रूप से परिणत होते हैं, वह आम्ल नामकर्म है।
जिस कर्म के उदय से शरीर के स्कंध गन्ने आदि के समान मधुरता को प्राप्त होते हैं, वह मधुर नामकर्म है। रसकर्म का अभाव नहीं है,क्योंकि निंबादि में प्रतिनियत रस देखा जाता है।
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