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________________ यत् कर्मोदयेन पंचेन्द्रियावस्थान प्राप्तो जीवः पंचेन्द्रिय कथ्यते तत् पंचेन्द्रियजातिनाम। यदि जातिनाम कर्म न स्यात् तर्हि वीहयोः बाहिभिः वृश्चिका वृश्चिकर्मत्कुणामत्कुणैश्च समाना न जायेरन्। दृश्यते ता जातयः प्रत्यक्षेण ततः आप्तवचनं प्रमाणं स्यात्। यद् उदयात् सप्तधातुमयस्यौदारिकशरीरस्य तिर्यग्मनुष्याणां निवृत्ति भवति तदौदारिक-शरीरनाम। यत् कर्मविपाकेन देवनारकाणामने क-विक्रियाकरण-समर्थ वैक्रियिकशरीरं जायते तत् वैक्रियिकशरीरनाम। येन पुद्गलस्कंधोदयेन शुभं सूक्ष्म संशय-निर्नाशकं आहारकशरीरं मुनीनामुत्पद्यते तदाहारकशरीरनामायेन कर्मणा शुभाशुभात्मकं जिस कर्म के उदय से पंचेन्द्रियों में अवस्थान होता है, वह पंचेन्द्रिय जाति नामकर्म है। यदि जाति नामकर्म न हो तो धान्य धान्य के साथ, विच्छु विच्छुओं के साथ, खटमल खटमलों के समान न होगें, किन्तु इन सबमें परस्पर सदशता दिखाई देती है। इससे जाति नामकर्म का अस्तित्त्व सिद्ध होता है और आप्त के वचनों की निर्दोष सिद्धि होती है। जिस कर्म के उदय से सप्तधातुमय औदारिक तिर्यंच और मनुष्यों के शरीर की रचना होती है, वह औदारिकशरीर नामकर्म है। जिस कर्म के फलस्वरूप देव नारकियों के अनेक प्रकार की विक्रिया करने में समर्थ वैक्रियिक शरीर की उत्पत्ति होती है, वह वैक्रियिकशरीर नामकर्म है। जिन पुदगल स्कंधों के उदय से शुभ, सूक्ष्म एवं संशय नाशक मुनियों के आहारक शरीर की उत्पत्ति होती है, उसे आहारकशरीर कहते हैं। जिस कर्म के उदय से साधुओं के शुभ अशुभ रूप शुभ अशुभ (24) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002694
Book TitleKarma Vipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherNirgrantha Granthamala
Publication Year2004
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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