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________________ यत् कर्मोदयेन पापी तिर्यग्गतिं व्रजति सा तिर्यग्गतिः । यद् कर्मविपाकेन देही मनुष्यगतिं गच्छति सा मनुष्यगतिः । यत् पुण्यकर्मोदयेन पुण्यवान् देवगतिं लभते सा देवगतिः । यदि गतिनामकर्म न स्यादगति जीवः स्यात् । यद् उदयादात्मा एकेन्द्रिय कथ्यते तदेकेन्द्रियजातिनाम । यत् वशात् संसारी क्रम्यादिजातिं प्राप्नोति द्वींद्रिय उच्यते तद् द्वीन्द्रियजातिनाम । यदाधनो देहीं कुंथ्वादिभवं गतस्त्रीन्द्रिय निगद्यते तद् त्रीन्द्रियजातिनाम । यत् कर्म विपाकेन दंशादि योनिं परिणतः संसारी चतुरिंद्वियों निरूप्यते तच्चतुरिंद्वियजातिनाम | · जिस कर्म के उदय से पापी जीव तिर्यंचगति में जाता है, वह तिर्यंचगति है । वह जिस कर्म के उदय से प्राणी मनुष्य गति को जाता है, मनुष्य गति है। जिस पुण्य कर्म के उदय से पुण्यवान जीव को देवगति की प्राप्ति होती है, वह देवगति नामकर्म है । यदि गति नामकर्म न हो तो जीव के अन्य भव में जाना संभव न हो सकेगा । जिसके उदय से आत्मा एकेन्द्रिय कहा जाता है, वह एकेन्द्रिय जाति नामकर्म है । जिस कर्म के वश से जीव कृमि आदि जाति को प्राप्त द्वीन्द्रिय होता है, वह द्वीन्द्रिय जाति नामकर्म है। जिस कर्म के आधीन प्राणी कुंथु आदि भव को प्राप्त हुआ त्रीन्द्रिय होता है, वह त्रीन्द्रिय जाति नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से दंशादि योनि को प्राप्त होता हुआ चतुरिन्द्रिय कहलाता है, वह चतुरिन्द्रिय नामकर्म है। (23) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002694
Book TitleKarma Vipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherNirgrantha Granthamala
Publication Year2004
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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