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येन दुष्कर्मोदयेन जीवस्योर्द्धगांतस्वभावस्य तीव्रवेदना-व्याप्तेषु -दुस्सह-शीतोष्ण-व्याकुलेषु नरकेषु दीर्घतर-जीवनेनावस्थानं भवति तत् नरकायुः। यद् विपाकेन दुःखाकुलः प्राणी तिर्यग्गतिषु जीवति तत् तिर्यगायुः। येन कर्म-विपाकेन सुखदुःखाकुलेषु मनुष्यभवेणु चिरमवस्थानं भवति देहिनां तन्मनुष्यायुः। येन पुण्यकर्म-विपाकेन शर्माकरासु देवगतिषु घनतरं कालं अवस्थानं धर्मिणां भवति तद् देवायुः। यथा श्रृंखलाबद्धपुमान् बंदीगृहात् गमनं कर्तुं न शक्नोति तथा आयुः श्रृंखलाबद्धोंगीकाय बंदीगृहात् गत्यंतरं गंतुं न शक्नोति।
यद् दुष्कर्मवशेनात्मा नरकगतिं याति सा नरकगतिः।
जिन कर्म स्कंधों के उदय से ऊर्ध्व गमन स्वभाव वाले जीव का तीव्र शीत और उष्ण वेदना वाले नरकों में दीर्ध जीवन होता है, वह नरकायु है ।
जिस कर्म के उदय प्राणी का विविध वेदनाओं के स्थान स्वरूप तिर्यंच गति में अवस्थान होता है, वह तिर्यगायु है।
जिस कर्म के उदय से सुख और दुःखों से व्याप्त मनुष्य भव में दीर्घकाल तक अवस्थान होता है, वह मनुष्यायु है।
जिस कर्म के फलस्वरूप धर्मात्मा जीव का सुखकर देवगति में दीर्घकाल तक अवस्थान होता है, वह देवायु कर्म है।
जैसे श्रृंखलावद्ध पुरुष वंदीगृह से जाने में समर्थ नहीं होता ठीक उसी प्रकार आयु कर्म से बंधा हुआ प्राणी दूसरी गति में जाने में समर्थ नहीं होता है।
जिस दुष्कर्म के फलस्वरूप जीव नरकगति में जाता है, वह नरकगति कर्म है।
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