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शुभाशुभकरं तैजसशरीरं यतीनां भवति तत् तैजस शरीरनाम । यद् उद्यात् कर्ममयं कार्मणशरीरं देहिनां जायते तत् कार्मणशरीरनाम। यदि शरीरनामकर्म न स्यादात्मा मुक्तः स्यात् । येन कर्मविपाकेन शिरः पृष्टोरोबाहूदलगलकपाणिपादाष्टांगानि ललाटनासिकाद्युपांगानि तदंतरभेदानि च भवति तदौदारिकवैक्रियिकाहारकांगोपांगनाम त्रिविधं । यद् उद्याद् चक्षुरादीनां स्व-स्व स्थानेषु प्रमाणान्विताश्च चक्षुरादयो जायंते तन्निर्माणनाम । निर्माणनाम द्विविधं। प्रमाणनिर्माणं स्थाननिर्माणं चेति । यद्येतत्कर्म न स्यात्कर्णनासिकादीनां स्वजाति स्वरूपे
तैजसशरीर की रचना होती है, वह तैजसशरीर नामकर्म है । जिसके उदय से प्राणियों के कर्म रूप कार्मणशरीर की उत्पत्ति होती है, वह कार्मणशरीर नामकर्म है।
यदि शरीर नामकर्म न हो तो जीव के अशरीरता का प्रसंग हो जायेगा जबकि संसारी जीवों के शरीर दृष्टिगोचर होता ही है।
जिस कर्म के उदय से मस्तक, पीठ, हृदय, दो हाथ, नितम्ब (कमर के पीछे का भाग), दो पैर, दो हाथ, ये आठ अंग तथा ललाट, नाक आदि उपांग होते हैं वही आंगोपांग औदारिक, वैक्रियिक और आहारक के भेद से तीन प्रकार का है ।
जिस नामकर्म के अनुसार चक्षु आदि स्व-स्व स्थानों में यथा योग्य प्रमाण निष्पन्न होते हैं, वह निर्माण नामकर्म है।
निर्माण नामकर्म दो प्रकार का है, प्रमाणनिर्माण एवं स्थान - निर्माण ।
यदि प्रमाण एवं स्थान निर्माण नामकर्म न हो तो कान, नासिका
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