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यस्योदयेनाप्तागम-तत्त्व-गुर्वादौ मिथ्यागमगुर्वादौ च निश्चय उत्पद्यते तत् सम्यग्मिथ्यात्वं अर्द्धशुद्ध-तंदुल-समानं। दुःखसस्य-पूरितं कर्म-क्षेत्रं कृषति फलवत् कुर्वतीति कषायाः। अंनतान् भवान् मिथ्यात्वासंयमौचानुबंधी शीलं येषां ते अनंतानुबंधिनः अथवा अनंतेषु भवेष्वनुबंधः संस्कारो विद्यते येषां ते अनंतानुबंधिनः सम्यक्त्वदेशसंयम-निरोधकाः। यस्योदयादात्मा भवांतरेपि पाषाण-रेखा-निमं क्रोधं न त्यजति सोनंतानुबंधि क्रोधः। यद् विपाकेन जीवो भवांतरेपि स्वाभिमानं शैल-स्तंभ-समानं न मुंचति सोनंतानुबंधिमानः।
जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम, तत्त्व, गुरु आदि तथा कुशास्त्र, कुदेव, कुगुरु आदि में युगपत् श्रद्धा उत्पन्न होती है, वह सम्यग्मिथ्यात्व कहलाता है। इसके उदय से अर्द्ध शुद्ध मदशक्ति वाले कोदों और
ओदन के उपयोग से प्राप्त हुये मिश्र परिणाम के समान उभयात्मक परिणाम होता है।
दुःख धान्य से पूरित कर्म रूपी क्षेत्र को जो फलवती करती है वह कषाय है। अनन्त भवों तथा मिथ्यात्व , असंयम को बांधना ही जिनका स्वभाव है। वे अनन्तानुबंधी कहलाते है अथवा अनंत भवों में जिनका अनुबंध रूप संस्कार विद्यमान रहता है वे अनंतानुबंधी कहलाते है। “यह सम्यक्त्व एवं देश संयम का विनाश करने वाली कषाय है।" जिसके उदय से आत्मा भवान्तर में भी पाषाण रेखा के सामान क्रोध को नहीं छोड़ता है, वह अनंतानुबंधी क्रोध है। जिसके उदय से जीव भवांतर में भी शैल समान मान को नहीं छोड़ता है, वह अनंतानुबंधी मान है।
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