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________________ आप्तागमतत्त्वगुर्वादिषु निग्रंथमोक्षमार्गे च रूचिः श्रद्धा दर्शनं तत् मोहयति विपरीतं करोति दर्शनमोहनीयं। यदुदयाददेवे देवबुद्धिः अतत्त्वे तत्त्वबुद्धिः अगुरौं गुरुबुद्धिः अधर्म धर्मबुद्धिः अगुणे गुणवुद्धिः विपरीतामतिश्च जायते तन्मिथ्यात्वं कौद्रवतुषरूपं। यथा ज्वरी शर्करादुग्धं कटुकं वेत्ति निबादिकं च मधुरं जानाति तथा मिथ्यात्व-ज्वर-व्याप्तोंगी धर्म पापं जानाति पापं धर्म जानाति विकलवत् स्वेच्छया पदार्थानादत्ते न मनारिक्चार चतुरो भवति। यस्य विपाकेनाप्तागम-पदार्थ निग्रंथ-मोक्ष-मार्गादिषु श्रद्धायाः शैथिल्यं भवति तत् सम्यक्त्वप्रकृति कोदव-तंदुल-सदृशं। आप्त, आगम, तत्त्व गुरु आदि एवं निग्रंथ मोक्ष मार्ग में प्रतीति श्रद्धा दर्शन है उस श्रद्धा को जो विपरीत करता है वह दर्शन मोहनीय कर्म है। जिस कर्म के उदय से अदेव में देव बुद्धि , अतत्त्व में तत्त्व बुद्धि, अगुरु में गुरुबुद्धि, अधर्म में धर्मबुद्धि ,अगुण में गुण बुद्धि इस प्रकार विपरीत बुद्धि का होना मिथ्यात्व है कोदों के तुष के समान । जैसे ज्वर पीड़ित व्यक्ति मधुर दुग्ध को कड़वा जानता है, निंब आदि को मधुर जानता है उसी प्रकार मिथ्यात्व ज्वर से पीड़ित प्राणी धर्म को पाप जानता है, पाप को धर्म मानता है। उन्मत्त पुरुष जिस प्रकार इच्छानुसार पदार्थो के स्वरूप को मानता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव को जानना चाहिए । जिस कर्म के उदय से आप्त , आगम , पदार्थ , निग्रंथ मोक्षमार्ग में श्रद्धा शिथिल होती है वह सम्यक्त्व प्रकृति है। कोदों के चावल के समान । (16) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002694
Book TitleKarma Vipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherNirgrantha Granthamala
Publication Year2004
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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