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वीर्यापहरणधर्मातंरायकुशलाचरणं क्रियापरनिरोधपरभोजनादि -निवारणबंधगुह्यकर्णनासिकादिछेदनान्यवियोगकरणादयाऽतंरायकर्माश्रवस्य हेतुभूता भवति।
कुशल चारित्र वाले तपस्वी गुरु आदि की पूजा में व्याघात करना, परनिरोध, दूसरों को दिये जाने वाले भोजनादि में विघ्न करना, बंधन, गुह्य अंगच्छेद, कर्ण, नासिकादि का काट देना, दूसरों का वियोग करा देना आदि अंतराय कर्म के आश्रव के कारण होते हैं। - ग्रन्थकार ने ग्रन्थ में प्रकृति बंध, स्थिति बंध, अनुभाग बंध और प्रदेश बंध का कथन क्रमशः संक्षेप रीति से किया है। प्रकृति बंध में, कर्मबंध की गुणस्थानों में बंध अबंध योग्य प्रकृतियों का कथन किया है। जिस शैली से बंध अबंध की व्यवस्था ग्रन्थकार ने ग्रन्थ में निरूपित की है उसी शैली का अनुसरण कर उदय अनुदय की व्यवस्था निरूपण की जा रही है। इस व्यवस्था से पाठकगणों को उदय अनुदय संबंधी प्रकृतियों के प्रायः नामोल्लेख उपलब्ध होते जायेंगे। अतः उसी शैली से निरूपण निम्न प्रकार है
उदय योग्य प्रकृतियां- भेद विवक्षा से 148 प्रकृतियाँ उदय योग्य हैं। किन्तु अभेद विवक्षा से 122 प्रकृतियां उदय योग्य हैं। जो इस प्रकार हैं- 5 ज्ञानावरण , 9 दर्शनावरण, 2 वेदनीय, 28 मोहनीय, 4 आयु, चार गति, पांच जाति, पाँच शरीर, तीन आंगोपांग, 6 संस्थान, 6 संहनन, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, चार आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग,
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