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परनिंदात्मप्रशंसात्मान्यसद्गुणोच्छादनासद्गुणोद्भावन -स्वदोषोच्छादनगुणाख्यापनजातिकुलेश्वर्यरूपज्ञानतपो बलाज्ञा मदकरणपरावज्ञापरिवादगुरुधर्मिजनपरिभवजिनेन्द्रमुनितपस्वि -गुणिजनाचार्यादिनमस्कारांजलिस्तुत्यभ्युत्थानाधकरणावमानमात्सर्यादीनि नीचैर्गोत्रस्य कारणानि स्युः।
परगुणग्रहणपरनिंदापरान्मुखस्वनिंदाकरणस्वगुणाख्यापनदेवश्रुतसधर्मिगुर्वादिनमस्कारप्रतिपत्यादिकरणकुलादि गर्वाभावधर्मशीलतानिरहंकारविनयवैयावृत्यमार्दवादयः उच्चैर्गोत्रस्य हेतवः निरूपिताः।
दानपूजनजिनचैत्यालयबिम्वप्रतिष्ठादिषु विध्नकरणपर
पर निंदा, आत्मप्रशंसा, दूसरों के सद् गुणों का आच्छादन, अविद्यमान गुणों का उद्भावन, अपने दोषों को छिपाना, गुणों को प्रकट करना, जाति, कुल, ऐश्वर्य, रूप, ज्ञान, तप, बल और आज्ञा आदि 8 का मद करना, पर की अवज्ञा, दूसरों की निंदा, गुरु एवं धार्मिक जनों का तिरस्कार, जिनेन्द्र देव, मुनि, तपस्वी, गुणीजन आचार्य आदि को नमस्कार, अंजलि स्तुति, आदर आदि में अवमान और मात्सर्य भाव होना ये सव नीच गोत्र के आश्रव के कारण हैं।
परगुण ग्रहण, परनिंदा परान्मुखता, अपनी निंदा करना, अपने गुणों . को प्रगट नहीं करना, जिन देव, श्रुत, सधर्मि गुरु आदि को नमस्कार, आदर, कुल आदि का गर्व नहीं करना, धर्मशीलता, निरहंकार, विनय, वैयावृत्य, मार्दव आदि भाव उच्चगोत्र के आश्रव के कारण कहे गये हैं। ___ दान, पूजन, जिन चैत्यालय, जिनबिम्ब प्रतिष्ठा आदि में विघ्न करना, दूसरों की शक्ति को प्रकट नहीं होने देना, धर्म विच्छेद करना,
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