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कागज गल गया है, तिड़क रहा है, स्याही फैली हुई है, चिकनाई के धब्बे हैं, धूल-मिट्टी जमी है, कीड़े-मकोड़े या दीमक ने खा लिया है आदि। दूसरे, उसके 'आकार-संबंधी' विवरण का उल्लेख भी होना चाहिए। हस्तलिखित ग्रंथों के निम्नलिखित आकार-प्रकार हो सकते हैं - (क) पोथी, (ख) गुटका, (ग) बही, (घ) पोथा, (ङ) खुलेपत्र, (च) पानावली आदि।
(3) लिप्यासन (कागज): 'लिप्यासन' से अभिप्राय पाण्डुलिपि का आधार होता है । यह लिप्यासन सामान्यत: दो प्रकार - कठोर एवं कोमल - के होते हैं । कठोर लिप्यासनों में मिट्टी की ईंटें, शिलाएँ, धातुएँ आदि आती हैं और इन्हें 'जनक' कहते हैं । क्योंकि इनसे लिप्यासन जन्म लेते हैं । कोमल लिप्यासनों में चर्म, पत्र, छाल, वस्त्र एवं कागज आते हैं और इन्हें 'जनित' कहा जाता है। इनमें भी 'कागज' मानवनिर्मित होने के कारण पूर्णत: जनित' है। कागज बनाने में बहुत तरह की सामग्री काम में आती है और उससे कई प्रकार के कागज बनाये जाते हैं। जैसे - देशी कागज, मोटा, पतला, मध्यम मोटा और मशीनी। इनके निर्माण के समय विविध रंगों का प्रयोग कर कागज विविध रंगों में भी बनाये जाते थे। मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार हमारे देश में कई जगह कागज बनाने के कारखाने थे, जैसे - काश्मीर, दिल्ली, पटना (बिहार), शाहबाद, कानपुर, घोसुंडा (मेवाड़), अहमदाबाद, खंभात, कागजपुरी (दौलताबाद के पास) आदि जगह। इन जगहों के निर्माण-स्थल के नाम से कागज भी अनेक नामों से जाना जाता था, जैसे - कश्मीरी, मुगलिया, आरवाल, साहेवखानी, खंभाती, अहमदाबादी, शणीआ, दौलताबादी आदि। इनमें कश्मीरी कागज कोमल, चिकना एवं मजबूत माना जाता था। कश्मीरी स्याही की भी तारीफ की जाती थी। कश्मीरी कागज पर लिखित एक हस्तलिखित प्रति 'भाषा योग वाशिष्ठ' की हमें श्री किसनदत्त शर्मा, बहरोड़ (अलवर) के सौजन्य से देखने को मिली थी। उसका कागज एवं लिखावट सुन्दर एवं चित्ताकर्षक थी। ग्रंथविवरण इस प्रकार है? -
1. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 29-30। 2. परिषद् पत्रिका, पटना, वर्ष 20, अंक 4, जनवरी, 1981, पृ. 78, पाण्डुलिपियों की
खोज : डॉ. महावीर प्रसाद शर्मा (खोज रिपोर्ट)
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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