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हुए (वेष्टन) थे और कितने खुले पत्रों में थे? रचनाकार एवं लिपिकर्ता का परिचय तथा रचनाकाल या लिपिकाल आदि उसे डायरी में लिखने चाहिए।
इसके बाद अनुसंधानकर्ता के व्यवहार आदि के अनुसार उसे प्राप्त ग्रंथों को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। कोशिश इस बात की करनी चाहिए कि ग्रंथ दान या भेंट में निर्मूल्य मिल जाये। लेकिन यदि कोई बहुमूल्य पाण्डुलिपि ले-देकर भी लेनी पड़े तो उसे प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। किसी पाण्डुलिपि के मूल्य का निर्धारण करते समय उसका रचनाकाल, लिपिकाल, वर्णित-विषय का महत्व, लेखन-शैली की विशेषता, चित्र, अलंकरण, कागज, स्याही आदि की उत्कृष्टता का भी ध्यान रखना चाहिए। मूल्य देकर खरीदी गई पुस्तक का एक प्रमाण-पत्र भी विक्रेता से प्राप्त कर लेना चाहिए, ताकि उस पुस्तक के चोरी की होने या चोरी होने की अवस्था में वह प्रमाण-पत्र काम आ सके। उस ग्रंथ का पूर्ण विवरण भी अपने पास रखना चाहिए। 4. प्राप्त पाण्डुलिपि का विवरण
क्षेत्रीय अनुसंधान में किसी भी पाण्डुलिपि का विवरण दो दृष्टियों से लेना चाहिए : प्रथम - बहिरंग विवरण, दूसरे - अन्तरंग विवरण।
(1) बहिरंग विवरण : इसके अन्तर्गत, सर्वप्रथम ज्योंहि ग्रंथ आपके हाथ में आता है उसके आकार-प्रकार पर निगाह पड़ती है। अतः ग्रंथ का आकार क्या है? कितने पृष्ठ हैं ? लिखे एवं रिक्त पृष्ठ कितने हैं? पृष्ठों की लम्बाई, चौडाई और दाएँ-बाएँ के हाशिए कितने और कैसे हैं? स्याही का रंग क्या है? छन्द संख्या कितनी है? कृति पूर्ण है या अपूर्ण है। प्रति पृष्ठ कितनी पंक्तियाँ हैं और प्रति पंक्ति कितने शब्द हैं? ग्रंथ का कागज कैसा है? आदि जानकारियाँ बहिरंग विवरण में लिखी जानी चाहिए।
(2) अंतरंग : अन्तरंग की दृष्टि से अनुसंधानकर्ता को यह देखना चाहिए कि क्या रचना के आदि (प्रारंभ) में रचनाकार ने किसी देवता, राजा, गुरु या इष्टदेव की स्तुति की है? क्या रचनाकाल-सूचक कोई सूचना भी दी गई है? यद्यपि ग्रंथ के अंत में पुष्पिका में रचना या लिपिकाल देने की परम्परा है, फिर भी किसी-किसी ग्रंथ के आदि में भी ये सूचनाएँ मिल जाया करती हैं । यदि प्रस्तुत ग्रंथ, मूलग्रंथ की प्रतिलिपि है तो भी, वह रचना, भाषा-विज्ञान एवं पाठालोचन
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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