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________________ महत्वपूर्ण रही है। इस महायज्ञ में काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने 1900 ई. से ही अपना योगदान प्रारंभ कर दिया था। विशेष रूप से हिन्दी-साहित्य का इतिहास तो इसी क्षेत्रीय-अनुसंधान की नींव पर खड़ा किया गया था, जिसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती रही है। हस्तलिखित ग्रंथों, निजी ग्रंथागारों की दृष्टि से राजस्थान और गुजरात अत्यधिक धनी क्षेत्र रहे हैं। इसका बहुत-सा श्रेय जैन-ग्रंथागारों को जाता है। राजस्थान के अजमेर, बीकानेर, जोधपुर, उदयपुर, जयपुर, अलवर, टोंक आदि स्थानों के निजी-पुस्तकालयों का अत्यधिक महत्व रहा है। गुजरात में अहमदाबाद और पाटन के निजी पुस्तकालय भी महत्वपूर्ण रहे हैं। बिहार में 'खुदाबक्स पुस्तकालय' प्रारम्भ में निजी पुस्तकालय ही था, अब वह सार्वजनिक पुस्तकालय कहलाता है, जहाँ लगभग 15,000 पाण्डुलिपियाँ स्थित हैं। इसी प्रकार बिहार के ही भरतपुरा गाँव के श्री गोपालनारायणसिंह का संग्रहालय भी निजी ही था, जहाँ 4000 पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित थीं। सन् 1912 ई. में यह पुस्तकालय सार्वजनिक हो गया। राजस्थान में अजमेर के सेठ कल्याणमल ढड्डा एवं बीकानेर के सेठ अगरचंद नाहटा के पुस्तकालय भी निजी क्षेत्र में मूल्यवान एवं प्राचीन पाण्डुलिपियों से सम्पन्न रहे हैं। वर्तमान में तो अनेक शोधकर्ताओं ने अपने-अपने निजी संग्रह बनाने शुरू कर दिये हैं । आज भी राजस्थान में यदि पूरी पड़ताल की जाये तो घर-घर में बस्ते-बुगचों में अनेक अज्ञात प्राचीन पाण्डुलिपियाँ अपने उद्धार की आशा में किसी न किसी क्षेत्रीय अनुसंधानकर्ता की प्रतीक्षा में हैं। 1. अनुसंधानकर्ता पाण्डुलिपिविज्ञान की दृष्टि से क्षेत्रीय-अनुसंधान का पूरा श्रेय अनुसंधानकर्ता को जाता है । वस्तुतः वह पाण्डुलिपिविज्ञान की धुरी है। ऐसे अनुसंधानकर्ता तीन प्रकार के होते हैं - प्रथम प्रकार के अनुसंधानकर्ता उच्चकोटि के विद्वान होते हैं, जो ऐतिहासिक, पुरातात्विक एवं हस्तलिखित सामग्री संकलन में व्यस्त रहते हैं। ऐसे विद्वानों में कर्नल टॉड, हार्नले, स्टेन कोनो, वेडेल, टेसिटरी, आरेल स्टाइन, डॉ. ग्रियर्सन, महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री, डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा, काशी प्रसाद पाण्डुलिपि-प्राप्ति के प्रयत्न और क्षेत्रीय अनुसंधान 71 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002693
Book TitleSamanya Pandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirprasad Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2003
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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