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डॉ. रामनाथ का यह कथन पठनीय है - "गुजरात के पाटन नगर में भगवती-सूत्र की एक प्रति 1062 ई. की प्राप्त हुई है। इसमें केवल अलंकरण किया गया है। चित्र नहीं हैं। ------ सबसे पहली चित्रित कृति ताडपत्र पर लिखित निशीथचूर्णि नामक पाण्डुलिपि है जो सिद्धराज जयसिंह के राज्यकाल में 1100 ई. में लिखी गई थी और अब पाटन के जैन भण्डार में सुरक्षित है । इसमें बेल-बूटे और कुछ पशु आकृतियाँ हैं। 13वीं शताब्दी में देवी-देवताओं के चित्रण का बाहुल्य हो गया। अब तक ये पोथियाँ ताड़पत्र की होती थीं। 14वीं शताब्दी से कागज का प्रयोग हुआ।" 14वीं शती में लिखे गए जैन धर्म ग्रंथ प्रायः सचित्र ही लिखे जाते थे। दक्षिण भारत में 980 ई. की 'पाल शैली' में लिखित बौद्धधर्म विषयक पाण्डुलिपि भी मिली है। धीरे-धीरे चित्रकला लौकिक रूप ग्रहण करने लगी। अनेक प्रेमगाथा-विषयक रचनाएँ लौकिक शैली में लिखी जाने लगीं। इनमें विविध रंगों एवं स्याहियों का प्रयोग होने लगा था। 19. चित्रलिखित पाण्डुलिपियों का महत्त्व
सचित्र पाण्डुलिपियाँ निम्नलिखित कारणों से महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं -
(1) ऐतिहासिक महत्त्व : सचित्र पाण्डुलिपियों से विभिन्न कालखण्डों में मानव अपनी अनुभूतियों को किन-किन रंगों और चित्रों में अभिव्यक्त करता था। इससे सांस्कृतिक परिवेश भी उजागर होता था।
(2) अलंकरण कला का इतिहास : सचित्र पाण्डुलिपियों से अलंकरण कला के इतिहास को समझने में सहयोग मिलता है।
(3) चित्रकला की प्रवृत्तियाँ एवं स्वरूप का अध्ययन। 20. काव्यकला और चित्रकला
कविता और चित्रकला का चोली-दामन का साथ है। ये दोनों ललित कलाएँ एक दूसरे की पूरक हैं । कभी-कभी काव्य-पंक्ति को चित्र के द्वारा स्पष्ट किया जाता है तो कभी चित्र के भाव को काव्य-पंक्ति से स्पष्ट किया जाता था। रीतिकवि बिहारी की सचित्र 'सतसई' का बड़ा महत्व है। इसी प्रकार बारहमासा और षड्ऋतुपरक काव्यों में भी सुन्दर-सुन्दर प्राकृतिक चित्र देखने को मिलते हैं। 1. मध्यकालीन भारतीय कलाएँ और उनका विकास, पृ. 6-7
पाण्डुलिपि-ग्रंथ : रचना-प्रक्रिया
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