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अर्थात् कज्जल, बीजाबोल समान मात्रा में लेकर उनसे दुगुने गोंद को पानी में घोलकर नीम के घोटे से ताम्रपत्र में घुटाई करनी चाहिए। भांगरा डालने से स्याही में चमक आ जाती है। ऐसी स्याही से कागज और कपड़े पर लिखा जा सकता है । स्याही में लाक्षारस या क्षार का प्रयोग भी ठीक नहीं है; क्योंकि इनकी मात्रा की कमी-बेसी स्याही को अच्छा नहीं रहने देती।
स्याही बनाते समय तिल के तेल का दिया जलाकर काजल तैयार करना चाहिए। गोंद भी नीम या खैर का ही प्रयोग में लेना चाहिए। स्याही में रींगणी डालने से उसमें चमक आ जाती है। ताड़पत्र पर लिखने के लिए लाख, कत्था
और लोहकीट की स्याही काम में लेनी चाहिए। ऐसी स्याही का कपड़े और कागज पर प्रयोग नहीं करना चाहिए। कच्ची और पक्की स्याही के कारण कुछ पाण्डुलिपियाँ प्राचीन होने पर भी नई लगती हैं, और कुछ नई होने पर भी गंदी
और धूमिल हो जाती हैं । पाण्डुलिपियों को बाँध कर रखते समय भी यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रतियाँ अलग-अलग कागजों में लपेट कर रखनी चाहिए। इसके बाद कार्डबोर्ड के समाकृति गत्तों में प्रति को रख कर बाँधना चाहिए। 17. अन्य प्रकार की स्याहियाँ
(1) रंगीन स्याही - भारत में काली स्याही के बाद अन्य अनेक प्रकार की स्याहियों का विवरण भी मिलता है। काली के बाद सर्वाधिक प्रयोग में आने वाली लाल स्याही थी। लाल स्याही के दो प्रकार थे - (1) अलता निर्मित (2) हिंगलू निर्मित । इसके प्रयोग के संबंध में डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का कथन है कि - "हस्तलिखित वेद की पुस्तकों में स्वरों के चिह्न और सब पुस्तकों के पन्नों पर की दाहिनी और बायीं ओर की हाशिये की दो-दो खड़ी लकीरें अलता या हिंगलू से बनी हुई होती हैं । कभी-कभी अध्याय की समाप्ति का अंश एवं भगवानुवाच', 'ऋषिरुवाच' आदि वाक्य तथा विरामसूचक खड़ी लकीरें लाल स्याही से बनाई जाती हैं। ज्योतिषी लोग जन्म-पत्र तथा वर्षफल के लम्बे-लम्बे खरड़ों में खड़े हाशिये, आड़ी लकीरें तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की कुण्डलियाँ लाल स्याही से ही बनाते हैं। इस प्रकार काली के बाद लाल स्याही का ही प्रयोग होता था। फिर तो लाल के बाद नीली, हरी और पीली स्याही 1. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 156
पाण्डुलिपि-ग्रंथ : रचना-प्रक्रिया
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