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प्रारंभ में स्याही, जल और कज्जल के मिश्रण से ही बनती थी। बाद में तो यह स्याही दीपक के काजल या धुएँ से हाथीदाँत को जलाकर भी बनाई जाती थी। इसमें कोयले का भी प्रयोग होता था। सातवीं शती के बाद काली के अतिरिक्त लाल, नीली, हरी, पीली, सुनहरी और चाँदी की स्याही का प्रयोग भी होने लगा था ।
ताड़पत्र, भोजपत्र, कपड़ा और चर्म पत्रादि पर लिखने के काम आने वाली स्याही में भी भिन्नता होती थी। 'स्याही' के प्रयोग की प्राचीनता का बोध 9वीं शती के पुष्पदन्त विरचित महिम्न स्तोत्र के श्लोक से लगाया जा सकता है असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सुरतरुवरशाखा - लेखनी लिखति यदि गृहीत्त्वा शारदा तदपि तव गुणानमीश पारं
भारतीय पाण्डुलिपियों को देखने से पता चलता है कि स्याही या मेला (मेल से बनी ) का रंग बहुत पक्का होता था । तरह-तरह की स्याही बनाने के नुस्खे प्रचलित थे। मुनि पुण्यविजयजी ने अपने ग्रंथ ' भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला' के पृ. 38 पर अनेक ऐसे नुस्खों का विवरण दिया है। मुख्य रूप से काली स्याही बनाने में नीम का गोंद, काजल, नियाजल को जल में एक साथ ताँबे के पात्र में घोट कर तैयार किया जात था । इस प्रकार स्याही बनाने की भी अनेक विधियाँ प्रचलित थीं ।
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बाद में, इसी बात को मध्यकाल के किसी कवि ने इस प्रकार कहा है
धरती सब कागद करों, लेखनी सब वनराय । सात समंद की मसि करों, हरि गुण लिखा न जाय ।
16. स्याही बनाते समय की सावधानियाँ एवं निषेध
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सिन्धुपात्रे, पत्रमुर्वी ।
सर्वकालं, याति ॥
जितना काजल उतना बोल, ते थी दूणा गूंद झकोल । जे रस भांगरानो पड़े, तो अक्षरे अक्षरे दीवा जले ।
The Encyclopaedia Americana, (Vol. 18), P. 241
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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