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हुए शुभाशुभ का ध्यान रखने की परम्परा रही है। इस परम्परा के अनुसार उसे क, ख, च, छ, ज, ठ, ढ, ण, थ, ध, द, फ, भ, म, य, र, ष, स, ह, क्ष और ज्ञ वर्णों पर विराम नहीं करना चाहिए। ऐसा करना अशुभ माना जाता है। शेष वर्णों पर रुकना शुभ माना जाता है । इन शुभाशुभ अक्षरों या वर्णों की फलश्रुति इस प्रकार है -
अशुभ अक्षरों की फलश्रुति – 'क' कट जावे, 'ख' खा जावे, 'ग' गरम होवे, 'च' चल जावे, 'छ' छटक जावे, 'ज' जोखिम लावे, 'ठ' ठाम न बैठे, 'ढ' ढह जाये, 'ण' नुकसान करे, 'थ' स्थिरता करे, 'द' दाम न दे, 'ध' धन छुड़ावे, 'न' नाश करे, 'फ' फटकारे, 'भ' भ्रमित करे, 'म' मंद या धीमापन लावे, 'य' पुनः न लिखें, 'र' रोवे, 'ष' खिंचावे, 'ह' हीन करे, 'क्ष' क्षय करे, 'ज्ञ' ज्ञान न हो। ___शुभ वर्णों की फलश्रुति - 'घ' घरुड़ी लावे, 'झ' झट करे, 'ट' टकावी रखे, 'ड' डिगे नहीं, 'त' तुरन्त लावे, 'प' परमेश्वर, 'ब' बनिया है, 'ल' लावे, 'व' वावे, 'श' शांति करे। मारवाड़ी-परम्परा में 'व' वर्षा पर किया गया लेखनविराम भी शुभ माना जाता है।' 15. स्याही
लेखन-कला में स्याही का महत्व कितना है, यह किसी से छिपा नहीं है। प्राचीन काल से ही स्याही (काली स्याही) का प्रचलन देखने को मिलता है। संस्कृत में 'मषी' या 'मसि' का अर्थ कज्जल होता है। इसी कज्जल से काली स्याही का निर्माण किया जाता था। इसी का सर्वाधिक प्रचलन मिलता है।
जैन परम्परा के अनुसार भगवान आदिनाथ ऋषभदेव ने मनुष्यों को तीन प्रकार के कर्मों में सर्वप्रथम प्रवृत्त किया - 1. असिकर्म (युद्ध विद्या), 2. मसिकर्म (लेखन विद्या), और 3. कृषि कर्म । इन्हीं कर्मों से वर्ण-व्यवस्था का विकास हुआ। मसि कर्म' की प्राचीनता का इसी से पता चलता है। अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर का निर्वाण वि. सं. 470 वर्ष पूर्व तथा ईसा से 526 वर्ष पूर्व हुआ था। इस प्रकार आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ द्वारा प्रचारित 'मसिकर्म' की प्राचीनता का अनुमान स्वतः ही लगाया जा सकता है। 1. पाण्डुलिपिविज्ञान, पृ. 49
पाण्डुलिपि-ग्रंथ : रचना-प्रक्रिया
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