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8. वर्जना (Imprecation) : वर्जना का अर्थ है किसी दुष्कर्म की निन्दा या भर्त्सना करना। वस्तुत: वर्जना के द्वारा अशोभनीय एवं अवांछित कार्यों के न करने के लिए कहा जाता है। इस निन्दा या वर्जना के बीज अशोक के अभिलेखों में देखने को मिलते हैं । बाद में 13वीं शती के आते-आते तो यह एक परम्परा का रूप ग्रहण कर चुकी थी। इसी के प्रभावस्वरूप मध्ययुगीन साहित्य में 'खलनिन्दा' की परम्परा चल पड़ी थी।
9. लिपिकार प्रतिज्ञा : कोई-कोई लिपिकार अपने निमित्त की गई प्रतिज्ञा का उल्लेख करते हैं। __10. लेखन समाप्ति शुभ : इसके अन्तर्गत लिपिकर्ता पाठक-श्रोता की मंगल-कामना करता है। जिसमें कहा जाता है कि जो उक्त रचना के प्रति श्रद्धाविश्वास व्यक्त करेगा उसका शुभ-मंगल होगा। यह कामना भी एक परम्परा बन गई थी। 14. शुभाशुभ ___ जब हम लेखन में परम्परा की बात करते हैं तो कुछ बातें शुभ और कुछ अशुभ मानी गयी हैं। यह शुभाशुभ की परम्परा रचना के आकार एवं लेखन के गुण-दोषों से अधिक प्रभावित है। ये निम्न प्रकार की हैं - (1) शुभाशुभ आकार, (2) लेखनी, (3) लेखन के गुण-दोष, (4) लेखन-विराम में शुभाशुभ का विचार।
(1) आकार : पुस्तक का परिमाण क्या हो? आकार क्या हो? इस बात की परम्परा से यह मान्यता चली आ रही है कि परिमाण या आकार में पुस्तक हाथभर, मुट्ठीभर, बारह अँगुलीभर, दश अँगुलीभर या आठ अंगुलीभर की हो सकती है। इससे कम या ज्यादा आकार रचना 'श्रीहीनता' के अशुभ फलदायी होती है। इसी प्रकार रचना का पत्र कैसा हो? इस संबंध में भी कहा है कि भोजपत्र, तेजपत्र, ताड़पत्र, स्वर्णपत्र, ताम्रपत्र, रौप्यपत्र, बटपत्र, केतकीपत्र, मार्तण्डपत्र आदि पर लिखी रचना ही शुभ फलदायी मानी गई है। अन्य किसी पत्र पर लिखने से दुर्गति होती है। हस्तलिखित 'वेद' घर में रखना अशुभ माना जाता है।
(2) लेखनी : लेखनी कैसी हो? इस संबंध में भी शुभाशुभ विचार की परम्परा रही है । मुनि पुण्यविजयजी, डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा, डॉ. व्हूलर
पाण्डुलिपि-ग्रंथ : रचना-प्रक्रिया
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