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"भारतीय आर्य संस्कृति ना अनुयायियों कोई पण कार्यनी शुरुआत कांई न कांई नानुं के मोदूं मंगल करीने जेज करे छे । ओ शाश्वत नियमानुसार ग्रंथ लेखनता आरम्भ मां हरेक लेखकों में नम ऐं नम: जयत्यनेकांतकण्ठी खः, नमो जिनाय, नमः श्री गुरुभ्यः, नमो वीतरागाय; ॐ नमः सरस्वत्यै, ॐ नमः सर्वज्ञाय, नमः श्री सिद्धार्थसुताय इत्यादि अनेक प्रकारना देव गुरु धर्म इष्टदेवता आदि ने लगता सामान्य के विशेष मंगलसूचक नमस्कार करता लगता...।' शिलालेखों में धर्म, संकर्षण, वासुदेव, चन्द्र, सूर्य, महिमावतानाम, लोकमाता, यम, वरुण, कुबेर, वासव, अहँत, वर्धमान, बुद्ध, संबुद्ध, भास्कर, विष्णु, केतु (विष्णु), गरुड़, पिनाकी, शिव, शूलपाणी, ब्रह्मा आदि को नमस्कार किया गया है। ___4. स्वस्तिमुख (Intiation) : वस्तुतः इसका अर्थ प्रवर्तन, उपक्रम, सूत्रपात या प्रारंभ होता है।
5. आशीर्वचन या मंगलकामना (Benediction) : अशोक के शिलालेखों प्रारंभ होकर यह परम्परा बाद में भारतीय इतिहास और साहित्य में काफी लोकप्रिय हुई है।
6. प्रशस्ति (Laudation) : प्रशस्ति के अन्तर्गत लेखक किसी के किए गए कार्य की प्रशंसा या उसके शुभ फल की कामना करता है। प्राचीन लेखोंअभिलेखों में किसी के नैतिक, धार्मिक कार्यों की प्रशंसा में कही गई निम्नलिखित 'प्रशस्ति' अब एक परम्परा बन गई है -
गेहे गेहे कलौ काव्यं, श्रोतातस्य पुरे पुरे।
देश देशे रसज्ञाता, दाता जगति दुर्लभः। 7. पुष्पिका या उपसंहार : पाण्डुलिपि के अन्त में रचनाकार या पाण्डुलिपिकर्ता द्वारा पुष्पिका या उपसंहार में निम्नलिखित बातों का उल्लेख करने की परम्परा रही है - (1) रचनाकार या लिपिकर्ता का नाम, (2) रचनाकाल, (3) स्वस्तिवचन, (4) किस निमित्त, (5) समर्पण, (6) स्तुति, (7) निन्दा, (8) किस राजा की आज्ञा से लेखन कार्य हुआ आदि।
1. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 57-58 2. कीर्तिलता : सं. डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, पृ. 4 .
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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