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'भारतीय प्राचीन लिपिमाला' के लेखक डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा जी अपने ग्रंथ के पृ. 108 पर इन अंकों को शिलालेखों, दानपत्रों एवं पाण्डुलिपियों पर किस प्रकार लिखे जाते थे, का उल्लेख करते हुए कहते हैं - ____ "प्राचीन शिलालेखों और दानपत्रों में सब अंक एक पंक्ति में लिखे जाते थे, परन्तु हस्तलिखित पुस्तकों के पत्रांकों में चीनी अक्षरों की नाई एक दूसरे के नीचे लिखे मिलते हैं। --- पिछली पुस्तकों में एक ही पन्ने पर प्राचीन और नवीन दोनों शैलियों से भी अंक लिखे मिलते हैं । पन्ने के दूसरी तरफ के दाहिनी
ओर के ऊपर की तरफ के हाशिये पर तो अक्षर संकेत से, जिसको अक्षर-पल्ली कहते थे, और दाहिनी तरफ के नीचे के हाशिये पर नवीन शैली के अंकों से, जिनको अंकपल्ली कहते थे।"
नेपाल, राजपूताना, गुजरात आदि से प्राप्त 16वीं शताब्दी तक की पाण्डुलिपियों में यह अक्षरक्रम देखने को मिलता है। यथा -
33% लुर , १५० स, १०२:२१, १४१ - १ , १५० : ४, ५०६
आदि।
(च) संशोधन : पाण्डुलिपि-विज्ञान में संशोधन की परम्परा से अभिप्राय लिपिकर्ता द्वारा प्रमादवश की गई असावधानियों से है जो पाठालोचन-विज्ञान के अध्येता के लिए समस्या बन जाती हैं। साथ ही पाण्डुलिपि में लेखन की त्रुटियों को ठीक करने हेतु लिपिकर्ता द्वारा संशोधन करने हेतु अपनाई गई चिह्नप्रणाली से है। ऐसे 16 प्रकार के चिह्नों की सूची 'पाण्डुलिपिविज्ञान" में इस प्रकार प्रस्तुत की गई है -
1. पाण्डुलिपिविज्ञान, डॉ. सत्येन्द्र पृ. 38-40
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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