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________________ ब्रह्म (ज्ञान) की रक्षा के लिए सर्वोत्तम साधन होने के कारण इसको यह नाम दिया गया। इस देश में इसकी विदेशी उत्पत्ति का सूचक कोई प्रमाण नहीं मिलता।'' इसलिए सभी प्राचीन भाषाएँ और उनकी लिपियों की उत्पत्ति दैवी मानी गई है तथा उनमें लिखित उनके आदि ग्रंथ या रचनाएँ भी दैवी (अपौरुषेय) मानी गई हैं। हमारे वेद इसीलिए 'अपौरुषेय' कहलाते हैं। हमारी भाषा 'देववाणी' एवं लिपि 'देवनागरी' कहलाती है। वस्तुतः प्राचीन भारत में लेखन-कार्य का अत्यधिक धार्मिक महत्व था तथा इस कार्य को अत्यधिक पवित्र कार्य माना जाता था। शायद इसी कारण हमारे अनेक प्राचीन ग्रंथों के अन्त में हस्तलिखित की रक्षा करने की कामना की जाती थी। 'पाण्डुलिपि विज्ञान' में डॉ. सत्येन्द्र इस प्रकार के कुछ श्लोक प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत करते हुए कहते हैं - जलाद् रक्षेत् स्थलाद् रक्षेत्, रक्षेत् शिथिल बंधनात्, मूर्ख हस्ते न दातव्या, एवं बदति पुस्तिका ॥" अग्ने रक्षेत् जलाद् रक्षेत्, मूषके भ्यो विशेषतः कष्टेन लिखितं शास्त्रं, यत्नेन परिपालयेत् । उदकानिल चौरे भ्यो, मूषके भ्यो हुताशनात् कष्टेन लिखितं शास्त्रं, यत्नेन परिपालयेत।' अर्थात् बड़े कष्टपूर्वक श्रम से लिखे शास्त्र की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। विशेष रूप से पानी, मिट्टी, शिथिल बंधन, मूर्ख व्यक्ति के हाथों से, अग्नि, वायु, मूषक और चोर से भी रक्षा करनी चाहिए। 12. लेखन-परम्पराएँ हमारे देश में पाण्डुलिपि-लेखकों के द्वारा तीन प्रकार की परम्पराओं का अनुसरण किया जाता है - 1. सामान्य, 2. विशेष, 3. शुभाशुभ। 1. सामान्य के अन्तर्गत निम्नलिखित परम्पराओं का अनुसरण किया गया है : (क)लेखन-दिशा : पाण्डुलिपियों में लेखन की अनेक दिशाएँ देखने को मिलती हैं। चीनीलिपि में ऊपर से नीचे की ओर, खरोष्टी एवं फारसी लिपि में 1. पाण्डुलिपि विज्ञान, पृ. 32 44 सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002693
Book TitleSamanya Pandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirprasad Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2003
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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